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शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

व्याकरणपरक लेख


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चतुर्थी विभक्ति
१.नमः - नमस्कार करना
श्री गणेशाय नमः।
श्री गणेश को नमस्कार है।

२.स्वस्ति: - कल्याण
सर्वेभ्यः स्वस्ति।
सबका कल्याण हो।

३.स्वाहा - आहुति
अग्नये स्वाहा।
अग्नि के लिए आहुति है।

४.क्रुध - क्रोध
रामः रावणाय क्रुध्यति।
राम रावण पर क्रोध करता है।

५.द्रुह - द्रोह करना
विभीषणः रावणाय अद्रुह्यत।
विभीषण ने रावण से द्रोह किया।

६.दा - देना
अहम् निर्धनाय दानं ददामी।
मैं गरीबो को दान देती हु।

७.इर्ष्य - ईर्ष्या /जलन करना
बाली सुग्रीवाय इर्ष्यति।
बाली सुग्रीव से इर्ष्या करता है।

८.असूय  - निंदा करना
दुर्योधनः पांडवेभ्यः असुयति।
दुर्योधन पांडवो की निंदा करता है।
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द्वितीया विभक्ति

१.अभितः - चारो ओर
ग्रामम् अभितः क्षेत्राणि सन्ति।
गाव के चारो ओर खेत है।

२.सर्वतः - सब ओर
गृहं सर्वतः उद्यानानि सन्ति।
घर के सब ओर बगीचे है।

३.उभयतः - दोनों ओर
नदीम् उभयतः वृक्षाणी सन्ति।
नदी के दोनों ओर पेड़ है।

४.प्रति - ओर
रामः गृहं प्रति गच्छति।
राम घर की ओर जाता है

५.विना - बिना
त्वां विना अहम् न गमिष्यामि।
तुम्हारे बिना मैं नहीं जाऊंगा।

६.अंतरा: - बीच में
विद्यालयःमहाविद्यालयं अंतरा मम गृहं अस्ति। विद्यालय व महाविद्यालय के बीच में मेरा घर है।

७.अनु - पीछे
लक्ष्मण: रामं सीतां च अनुगच्छति। लक्ष्मण राम और सीता के पीछे चलता है।

८.धिक् - धिक्कार
मुर्खां धिक्।
मूर्खो का धिक्कार है
तृतीया  विभक्ति

१.सह, सार्धं, साकं - साथ
सीता रामेण सह वनं गच्छति
सीता राम के साथ वन जाती है

२.समं - समान
त्वया समं कोपि सुन्दरम् नास्ति
तुम्हारे समान कोई भी सुंदर नहीं है

३.अलं - मत
अलं कार्येण
काम मत करो

४.अंग विकार की स्थिति में
सीमा पादेन खंजः।
सीमा पैर से लंगड़ी है।

मंथरा चक्शुन्न काणः।
मंथरा आँख से कानी थी।
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★व्याकरणलेख-17★
हम दिनप्रतिदिन बहार की दुनिया के सानिध्य में आते है तो कुछ ऐसा देखते है जिसकी प्रशंसा करने की इच्छा होती है। सामान्यतया तो संस्कृत में " शोभनम्, उत्तमम्, रुचिकरम्" इत्यादि शब्दो का उपयोग करते है। लेकिन कुछ और भी शब्द है जिसका उपयोग करने से संस्कृतभाषा और मधुर लगने लगती है। उनके कुछ सूत्र आज करेंगे।
*61) प्रशंसायां रूपप्। (५।३।६६)*
यहा "तिङश्च" की अनुवृत्ति आकर अर्थ होता है, _प्रातिपदिक और तिङ् से प्रशंसा अर्थ में रूपप् प्रत्यय होता है।_
A) प्रातिपदिक से :-
यदि कोई चतुर हो तो हम कहते है, " सः अतीव पटु: अस्ति।"  इस सूत्र से हम ऐसा भी कह सकते है,
" सः पटुरूप: अस्ति। "
अर्थात् वह प्रशंसा करने योग्य इतना चतुर है।
पटुरूप:     पटुरूपौ    पटुरूपा:।
पटुरूपा     पटुरूपे     पटुरूपा:।
पटुरूपम्    पटुरूपे     पटुरूपाणि।
इस तरह राम/सीता/वन-शब्दावत् रूप बनते है।
पाणिनि वैयाकरणरूप: अस्ति।
पाणिनि प्रशंसनीय वैयाकरण है।

B) तिङन्त से :-
यदि कोई अच्छी रसोई करता हो तो हम कहेंगे, " सः सम्यक् पचति। "
इस सूत्रसे इस तरह भी कह सकते है,
" सः पचतिरूपम्। "
वह प्रशंसा की जाय इतना अच्छा पकाता है।
यहा "पचतिरूपम्" ऐसा नपुंसकलिंग ही रहेगा और इसके इस तरह रूप बनेंगे,
पचतिरूपम्  पचतोरूपम्  पचन्तिरूपम्।
राम: लिखतिरूपम्।
कृष्ण: नृत्यतिरूपम्।


व्यवहारमें हम किसी के विषय में बात करते समय उसको उपमा देते है। जैसे,
ये ऋत्विक की तरह dance करता है।
उपमा देने में थोड़ी न्यूनता तो रहती ही है। उपमेय पूर्ण रूपसे उपमान जैसा नही हो सकता। अर्थात् यहा वो ऋत्विक की अपेक्षा थोड़ा ही कम अच्छा नाचता है। इस तरह की वाक्यरचना के लिए संस्कृत में कुछ विशिष्ट शब्दप्रयोग किये जा सकते है। जैसे,
*62) ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः। (५।३।६७)*
ईषद-असमाप्ति = जो थोड़ा सा ही अपूर्ण हो।
कल्पप्, देश्य, देशीयर् = ये तीन प्रत्यय होते है।
और ये "प्रातिपदिक और तिङन्त" दोनों से होते है।
A) प्रातिपदिक से :-
वह थोड़ा सा ही कम चतुर है।
" सः पटुकल्प: अस्ति। "
" सः पटुदेश्य: अस्ति। "
" सः पटुदेशीय: अस्ति। "

वह थोड़ा सा ही कम विद्वान् है।
" सः विद्वत्कल्प:/ विद्वद्देश्य:/ विद्वद्देशीय: अस्ति।
पटुकल्प:    पटुकल्पौ    पटुकल्पा:।
पटुकल्पा    पटुकल्पे     पटुकल्पा:।
पटुकल्पम्   पटुकल्पे     पटुकल्पानि।
इस प्रकार पटुदेश्य/पटुदेशीय के भी तीनो लिङ्गो में रूप बनते है।

B) तिङन्त से :-
वह थोड़ा सा ही कम अच्छा पकाता है।
" सः पचतिकल्पम्। "
" सः पचतिदेश्यम्। "
" सः पचतिदेशीयम्। "
यहा भी नपुसंकलिङ्ग ही होता है। और रूप इस तरह बनते है,
पचतिकल्पम्   पचत:कल्पम्  पचन्तिकल्पम्।
पचतिदेश्यम्    पचतोदेश्यम्   पचन्तिदेश्यम्।
पचतिदेशीयम्   पचतोदेशीयम्  पचन्तिदेशीयम्।


अब इसी अर्थमें (ईषद-असमाप्ति अर्थमें) केवल सुबन्त से ही एक और ( बहुच् नामका ) प्रत्यय होता है,
*63) विभाषा सुपो बहुच् पुरस्तात् तु। (५।३।६८)*
इस सूत्रमें भी " ईषद-असमाप्ति:" की अनुवृत्ति आती है। लेकिन इस सूत्रमें तीन बातें विशेष है,
- यह बहुच्-प्रत्यय सिर्फ सुबन्त से ही होता है, तिङन्त से नही।
- यह बहुच्-प्रत्यय विकल्प से होता है। अर्थात् पक्ष में कल्पप्/देश्य/देशीयर् ये तीनो प्रत्यय तो होंगे ही।
- यह बहुच्-प्रत्यय सुबन्त से आगे लगता है, नही की पीछे।

" सः बहुपटु: अस्ति। "
वह थोड़ा सा ही कम चतुर है।
पक्ष में,
" सः पटुकल्प: अस्ति। "
" सः पटुदेश्य: अस्ति। "
" सः पटुदेशीय: अस्ति। " ये तीनो भी होते है।
यहा देख सकते है कि,
'पटुकल्प:' में कल्पप्-प्रत्यय पीछे लगा है। जबकि 'बहुपटु:' में बहुच्-प्रत्यय आगे लगा है।

" सः बहुपण्डित: अस्ति। "
वह थोड़ा सा ही कम पण्डित है।
बहुपण्डित:   बहुपण्डितौ    बहुपण्डिताः।
इस तरह लिंगानुसार रूप बनते है।


एक और प्रत्यय भी होता है।
*64) प्रकारवचने जातीयर्। (५।३।६९)*
यहा भी " सुप: " की अनुवृत्ति आकर अर्थ बना _सुबन्त से प्रकारवचन अर्थ में जातीयर्-प्रत्यय होता है।_
पण्डितजातीय:।
पटुजातीय:।
मृदुजातीय:। इत्यादि रूप बनते है।
 सारांश यह हुआ की,
>> प्रातिपदिक और तिङन्त से चार प्रत्यय होते है,    
 - रूपप् ( प्रशंसा )
 - कल्पप्/देश्य/देशीयर् ( ईषद-असमाप्ति)

>> सुबन्त से दो प्रत्यय होते है,
 - बहुच् ( ईषद-असमाप्ति)
 - जातीयर् ( प्रकार )

आज हमने चार सूत्र किये।
क्रमशः.........

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