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रविवार, 30 अक्टूबर 2016

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 🍃💫🔯 दीपावलि 🔯 💫🍃
        लेखक - डाॅ.प.वि.वर्तक
                    भाग -1
   
दिवाळी हा शब्द मराठी आहे. दिव्यांची आळी म्हणजे दिवाळी. आळी म्हणजे रांग. घरांची रांग असते तिला 'आळी' असे मराठीमध्ये म्हणतात. पण आता हा शब्द आपण मूर्ख माणसांनी हरवून टाकलेला आहे. मराठी माणसेच आता आळीस 'लेन' हा इंग्रजी शब्द वापरतात. मानसिक पारतंत्र्य अजूनहि गेलेले नाही; उलट वाढतच चाललेले दिसत आहे. यास कारण आपलेच लेखक, दूरदर्शन नि वृत्तपत्रे आहेत. त्यांनी जर स्वातंत्र्यपूर्व काळातील स्वाभिमान जोपासला असता तर ही वेळ आली नसती. हे आपले जाता जाता निदर्शनास आणतो.
   दीपावलि हा संस्कृत शब्द दीप+आवलि मिळून बनलेला आहे. दीप म्हणजे दिवे. आवलि म्हणजे रांग. दिपांची रांग लावली जाते असा सण म्हणजे दीपावलि. दीपावलि हीच मराठीत दिवाळी बनली. दिवाळीत खूप व्यय होतो, त्यापायी जी अवस्था होते तीवरून 'दिवाळे निघणे' हा वाक्प्रचार आलेला असावा. दिवाळे निघण्याची पाळी येऊ नये म्हणूनच लक्ष्मीपूजन साजरे करण्याची प्रथा आली असावी. हे आपले माझे अनुमान आहे हो! त्यास पुरावा नाही.
   दिवाळी या सणास तरी पुरावा कुठे मिळतो? किती शतके दिवाळी चालू आहे हेहि सांगता येत नाही. कारण तशा नोंदी कुठे सांपडत नाहीत. त्यामुळे येथे आपण इतिहासातील पुरावे गोळा करीत अनुमान बांधू.
   दिवाळी ही सणांची आवलि म्हणजेच आळी आहे. लागोपाठ पांच-सहा दिवस हा सण चालतो. वसुबारस हा पहिला दिवस. धनत्रयोदशी हा दुसरा दिवस. दिवस म्हटले खरे, पण दिवसास महत्त्व नसून सायंकाळ महत्त्वाची असते. सायंकाळी दिवे रांगेमध्ये लावावयाचे असतात. नरकचतुर्दशी तिसरा दिवस, लक्ष्मीपूजन चौथा, पाडवा पांचवा तर भाऊबीज हा सहावा दिवस होय. सहा दिवस सण साजरा करणे ही जगातील एकमेव गोष्ट आहे. इतर कुठल्याहि धर्मामध्ये येवढा मोठा सण नाही. याचे कारण येवढा मोठा इतिहासहि इतर कुणा धर्माला नाही. हिंदु धर्माचा इतिहास पंचवीस सहस्र वर्षे इतका प्रचंड आहे. म्हणूनच प्रचंड मोठा सण आहे.
   हे सहा दिवस योजण्याचे कारण तैत्तिरीय संहितेमध्ये सांपडते. तैत्तिरीय संहिता म्हणजे कृष्ण यजुर्वेदाची तित्तिरी ऋषींनी सांभाळलेली संहिता होय. तैत्तिरीय संहिता  निदान दशसहस्र वर्षे इतकी मागे रचलेली आहे. हे मी म्हणतो कारण ती सांगते की कृत्तिका नक्षत्रावर उदगयनारंभ असतो. उदग् म्हणजे उत्तर दिशा. अयन म्हणजे उगवत्या सूर्याची चाल. उगविणारा सूर्य जेव्हा दक्षिणेकडून उत्तरेस वळतो तेव्हा उत्तरायणारंभ असतो. आज हा दिवस 22 डिसेंबरचा असतो. उत्तरायणारंभी तैत्तिरीयकाळी कृत्तिका नक्षत्रात सूर्य असे; पण आज सूर्य मूळ नक्षत्रात असतो. साहजिकच दहा नक्षत्रे सूर्य मागे हटलेला आहे. त्या हटण्याचे कारण परांचन किंवा संपात गति आहे. परांचन गतिमुळे सूर्य नउशे साठ वर्षामध्ये एक नक्षत्र मागे सरकत असतो. तेव्हा दहा नक्षत्रे मागे हटण्यास त्यास दशसहस्र वर्षे लागलेली असली पाहीजेत. साहजिकच तैत्तिरीय संहिता काळ दशसहस्र वर्षापूर्वीचा ठरतो.
 भेटूच भाग 2मध्ये.....

🌸 सर्वांना दिवाळीच्या हार्दीक शुभेच्छा🙏🏻🌸

शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

व्याकरणपरक लेख


—-------—---——
चतुर्थी विभक्ति
१.नमः - नमस्कार करना
श्री गणेशाय नमः।
श्री गणेश को नमस्कार है।

२.स्वस्ति: - कल्याण
सर्वेभ्यः स्वस्ति।
सबका कल्याण हो।

३.स्वाहा - आहुति
अग्नये स्वाहा।
अग्नि के लिए आहुति है।

४.क्रुध - क्रोध
रामः रावणाय क्रुध्यति।
राम रावण पर क्रोध करता है।

५.द्रुह - द्रोह करना
विभीषणः रावणाय अद्रुह्यत।
विभीषण ने रावण से द्रोह किया।

६.दा - देना
अहम् निर्धनाय दानं ददामी।
मैं गरीबो को दान देती हु।

७.इर्ष्य - ईर्ष्या /जलन करना
बाली सुग्रीवाय इर्ष्यति।
बाली सुग्रीव से इर्ष्या करता है।

८.असूय  - निंदा करना
दुर्योधनः पांडवेभ्यः असुयति।
दुर्योधन पांडवो की निंदा करता है।
——————---
द्वितीया विभक्ति

१.अभितः - चारो ओर
ग्रामम् अभितः क्षेत्राणि सन्ति।
गाव के चारो ओर खेत है।

२.सर्वतः - सब ओर
गृहं सर्वतः उद्यानानि सन्ति।
घर के सब ओर बगीचे है।

३.उभयतः - दोनों ओर
नदीम् उभयतः वृक्षाणी सन्ति।
नदी के दोनों ओर पेड़ है।

४.प्रति - ओर
रामः गृहं प्रति गच्छति।
राम घर की ओर जाता है

५.विना - बिना
त्वां विना अहम् न गमिष्यामि।
तुम्हारे बिना मैं नहीं जाऊंगा।

६.अंतरा: - बीच में
विद्यालयःमहाविद्यालयं अंतरा मम गृहं अस्ति। विद्यालय व महाविद्यालय के बीच में मेरा घर है।

७.अनु - पीछे
लक्ष्मण: रामं सीतां च अनुगच्छति। लक्ष्मण राम और सीता के पीछे चलता है।

८.धिक् - धिक्कार
मुर्खां धिक्।
मूर्खो का धिक्कार है
तृतीया  विभक्ति

१.सह, सार्धं, साकं - साथ
सीता रामेण सह वनं गच्छति
सीता राम के साथ वन जाती है

२.समं - समान
त्वया समं कोपि सुन्दरम् नास्ति
तुम्हारे समान कोई भी सुंदर नहीं है

३.अलं - मत
अलं कार्येण
काम मत करो

४.अंग विकार की स्थिति में
सीमा पादेन खंजः।
सीमा पैर से लंगड़ी है।

मंथरा चक्शुन्न काणः।
मंथरा आँख से कानी थी।
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★व्याकरणलेख-17★
हम दिनप्रतिदिन बहार की दुनिया के सानिध्य में आते है तो कुछ ऐसा देखते है जिसकी प्रशंसा करने की इच्छा होती है। सामान्यतया तो संस्कृत में " शोभनम्, उत्तमम्, रुचिकरम्" इत्यादि शब्दो का उपयोग करते है। लेकिन कुछ और भी शब्द है जिसका उपयोग करने से संस्कृतभाषा और मधुर लगने लगती है। उनके कुछ सूत्र आज करेंगे।
*61) प्रशंसायां रूपप्। (५।३।६६)*
यहा "तिङश्च" की अनुवृत्ति आकर अर्थ होता है, _प्रातिपदिक और तिङ् से प्रशंसा अर्थ में रूपप् प्रत्यय होता है।_
A) प्रातिपदिक से :-
यदि कोई चतुर हो तो हम कहते है, " सः अतीव पटु: अस्ति।"  इस सूत्र से हम ऐसा भी कह सकते है,
" सः पटुरूप: अस्ति। "
अर्थात् वह प्रशंसा करने योग्य इतना चतुर है।
पटुरूप:     पटुरूपौ    पटुरूपा:।
पटुरूपा     पटुरूपे     पटुरूपा:।
पटुरूपम्    पटुरूपे     पटुरूपाणि।
इस तरह राम/सीता/वन-शब्दावत् रूप बनते है।
पाणिनि वैयाकरणरूप: अस्ति।
पाणिनि प्रशंसनीय वैयाकरण है।

B) तिङन्त से :-
यदि कोई अच्छी रसोई करता हो तो हम कहेंगे, " सः सम्यक् पचति। "
इस सूत्रसे इस तरह भी कह सकते है,
" सः पचतिरूपम्। "
वह प्रशंसा की जाय इतना अच्छा पकाता है।
यहा "पचतिरूपम्" ऐसा नपुंसकलिंग ही रहेगा और इसके इस तरह रूप बनेंगे,
पचतिरूपम्  पचतोरूपम्  पचन्तिरूपम्।
राम: लिखतिरूपम्।
कृष्ण: नृत्यतिरूपम्।


व्यवहारमें हम किसी के विषय में बात करते समय उसको उपमा देते है। जैसे,
ये ऋत्विक की तरह dance करता है।
उपमा देने में थोड़ी न्यूनता तो रहती ही है। उपमेय पूर्ण रूपसे उपमान जैसा नही हो सकता। अर्थात् यहा वो ऋत्विक की अपेक्षा थोड़ा ही कम अच्छा नाचता है। इस तरह की वाक्यरचना के लिए संस्कृत में कुछ विशिष्ट शब्दप्रयोग किये जा सकते है। जैसे,
*62) ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः। (५।३।६७)*
ईषद-असमाप्ति = जो थोड़ा सा ही अपूर्ण हो।
कल्पप्, देश्य, देशीयर् = ये तीन प्रत्यय होते है।
और ये "प्रातिपदिक और तिङन्त" दोनों से होते है।
A) प्रातिपदिक से :-
वह थोड़ा सा ही कम चतुर है।
" सः पटुकल्प: अस्ति। "
" सः पटुदेश्य: अस्ति। "
" सः पटुदेशीय: अस्ति। "

वह थोड़ा सा ही कम विद्वान् है।
" सः विद्वत्कल्प:/ विद्वद्देश्य:/ विद्वद्देशीय: अस्ति।
पटुकल्प:    पटुकल्पौ    पटुकल्पा:।
पटुकल्पा    पटुकल्पे     पटुकल्पा:।
पटुकल्पम्   पटुकल्पे     पटुकल्पानि।
इस प्रकार पटुदेश्य/पटुदेशीय के भी तीनो लिङ्गो में रूप बनते है।

B) तिङन्त से :-
वह थोड़ा सा ही कम अच्छा पकाता है।
" सः पचतिकल्पम्। "
" सः पचतिदेश्यम्। "
" सः पचतिदेशीयम्। "
यहा भी नपुसंकलिङ्ग ही होता है। और रूप इस तरह बनते है,
पचतिकल्पम्   पचत:कल्पम्  पचन्तिकल्पम्।
पचतिदेश्यम्    पचतोदेश्यम्   पचन्तिदेश्यम्।
पचतिदेशीयम्   पचतोदेशीयम्  पचन्तिदेशीयम्।


अब इसी अर्थमें (ईषद-असमाप्ति अर्थमें) केवल सुबन्त से ही एक और ( बहुच् नामका ) प्रत्यय होता है,
*63) विभाषा सुपो बहुच् पुरस्तात् तु। (५।३।६८)*
इस सूत्रमें भी " ईषद-असमाप्ति:" की अनुवृत्ति आती है। लेकिन इस सूत्रमें तीन बातें विशेष है,
- यह बहुच्-प्रत्यय सिर्फ सुबन्त से ही होता है, तिङन्त से नही।
- यह बहुच्-प्रत्यय विकल्प से होता है। अर्थात् पक्ष में कल्पप्/देश्य/देशीयर् ये तीनो प्रत्यय तो होंगे ही।
- यह बहुच्-प्रत्यय सुबन्त से आगे लगता है, नही की पीछे।

" सः बहुपटु: अस्ति। "
वह थोड़ा सा ही कम चतुर है।
पक्ष में,
" सः पटुकल्प: अस्ति। "
" सः पटुदेश्य: अस्ति। "
" सः पटुदेशीय: अस्ति। " ये तीनो भी होते है।
यहा देख सकते है कि,
'पटुकल्प:' में कल्पप्-प्रत्यय पीछे लगा है। जबकि 'बहुपटु:' में बहुच्-प्रत्यय आगे लगा है।

" सः बहुपण्डित: अस्ति। "
वह थोड़ा सा ही कम पण्डित है।
बहुपण्डित:   बहुपण्डितौ    बहुपण्डिताः।
इस तरह लिंगानुसार रूप बनते है।


एक और प्रत्यय भी होता है।
*64) प्रकारवचने जातीयर्। (५।३।६९)*
यहा भी " सुप: " की अनुवृत्ति आकर अर्थ बना _सुबन्त से प्रकारवचन अर्थ में जातीयर्-प्रत्यय होता है।_
पण्डितजातीय:।
पटुजातीय:।
मृदुजातीय:। इत्यादि रूप बनते है।
 सारांश यह हुआ की,
>> प्रातिपदिक और तिङन्त से चार प्रत्यय होते है,    
 - रूपप् ( प्रशंसा )
 - कल्पप्/देश्य/देशीयर् ( ईषद-असमाप्ति)

>> सुबन्त से दो प्रत्यय होते है,
 - बहुच् ( ईषद-असमाप्ति)
 - जातीयर् ( प्रकार )

आज हमने चार सूत्र किये।
क्रमशः.........

सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

******* पठामि संस्कृतम् कतिपय भागानि

Many corrections needed Typed by Ashu
भो मिञगणा अभिवादन करोनि स्वागतमस्तु त्रृणोतु रेडियो मधुबनस्य कार्यक्रमः पठामि संस्क़ृतम् इति अर्थात ...
मिश्रो.. हिंदी में वयम् जानिमः यत् हिंदी भानायाम् एका प्रथा वर्तते. यदा अहं सम्मानं, आदांच दर्शयितुं इच्छामि, तदा अंह पृच्छामि आपक्या करते हैं आप कहा जाते हैं ,आप कहाँ रहते हैं अत्र सर्वेषु वाक्येणु मत्र क्रियापदानि प्रथम पुरषस्थ,बहुवचनस्थ रपाणि धारयान्ति अर्थात.... और प्रथा.... कि तुम क्या करते छे यहाँ सम्मान के लिये तुमकी जगह आप शब्द आनेरते क्रिया का रुप बहुवचन में चला गया हिंदी भानायाम् मध्यम पुरणस्थ बहुवचनस्थ संबोधनम् आप इति उच्यते.तत् हि आदासुचकिम् संबोधनम् आपि वर्तते. परन्तु संस्कृत भाषायाम् मध्यम पुरुस्थ बहुवचनास्र्थ युयम् इति शब्दः वर्तते यथा-भवान् किं करोति अर्थात्- भक्ती किं करोति इत्यादि

  आत्रस्थ प्रथमम् सुत्रम् योगा इति उच्चम्
नमस्करोमि भी मित्रगणाः प्रति सहाहस्य प्रथां पालयमि रेडियो मधुबनस्य त्राव्यमंचे भवन्ताः प्रति पठामि संस्कृत इति कार्यक्रमस्य अधतन पाठस्य प्रस्तुतिं करोमि अघ अहं भवन्ताः प्रति - योगसुत्र इति गंथस्य संक्षिप्तम् परिचयम् ददामि पतज्जलि मुनी अस्य ग्रंथस्य रचयिता अस्ति सः योग इति विषयस्थ नाम पातज्जल योगसुत्राणि समुचितं भवति पतज्जली मुनी एनःग्रंथः प्राथः त्रिसहस्त्र वर्षाणि पूर्व लिखितवान् मुनिः कथयति -योगच्त्रित्तवृत्तिनिरोधः चित्तस्य अर्थः भवति मन इति वृत्ति शब्दस्य अर्थः भवति -स्वभावः पंच ज्ञानेद्रियें सह मिलित्या चित्तः भ्रमति तेजाम् विषय़ान् अनुसरति ।यथा घा्णस्य विषयः सुगन्धः जिव्हायाः विषय स्वादः। त्रोत्रस्य विषयः ध्वनिः। तैः विषयैःसह चित्तः अनुरक्तः भवति । अनेन कारणेन परमेश्वारस्य विस्मरणं भवति । मनुष्यः योग समाधी प्रान्तुं न शनोति  

भो मित्रगणाः -पुनरपि स्वागतम् व्याहहमि । कौशलम् न्यासस्स कृत-तथा रेडियो मधुबनस्य श्राव्यमंचे भवन्तः श्रृप्वन्तु अघतन पठामि संस्कृतम् कार्यक्रमस्य अघनन प्रस्तुति। अघ संस्कृत पाठयपुस्तकस चतुर्थ भागस्य एका अहं भनन्तः प्रति मान्धाता नृपस्य कथा निवेदनं करोमि। श्रृप्वन्तु। एकदा भारतनर्षे....नान्नि नृपः आसीत्स अतिव दुर्जनः आसीत्। नृपस्य कर्तव्यः प्रजापालनं इति। किन्तु........अतीव शोषणकारी अपि आसितसः प्रजाजनानाम् अभ्युदयर्थ न करयाचित योजनम् अकोरत् ।पर तेपीम् धनधान्यंनीत्वा स्वयमेव बहु धनवान अभवत् । प्रजाजन्य प्रतिवर्षे अधिकाधिक दारिद्रयं अप्राप्नन्।
एकदा राज्ये अन्यवृष्ठि अभवत् । तदैव...नृपः लोभसंवरणं कर्तुं न अशक्नोत्। सः बलपुर्वकं धनधान्यं.....
प्रजाजनाअतीव दुरकी अभवन्। ते अचिनत्ययत यदा एवः नृपः सुराज्यं ददातुं न शक्नोति, अपरंतु


अत्याचार एवम् करोति, तदा सः अयोग्यः नृप आसीत्। तं राज्यच्युतुं कर्तुं वयम समर्थः। इति चिन्तचित्व सर्वाः प्रजाजनाः मिलित्वा तं राज्यच्युतं ....।किन्तु तदुपरान्तं ते चिन्तिताः अभवन्। अधुना कः राज्यं करिष्यति । कः प्रजापालनं करिष्यति। 

अर्यि मित्रगणाः स्वागतम् अस्तु । श्रृण्वन्तु रेडियो मधुबन। श्रृण्वन्तु एषां प्रस्तुति याम लिना मेहंदळे अहं । कौशलम न्यासस्य कृते अलिरवन अहं। भीष्मस्य महाप्राणस्य कथा कथायियामि ।
एकदा कास्मिन्यित् काले हरितनापुरी नगर्याः

शंतनु नामा सम्राट् आसित । तस्य भार्या आसित साक्षमत गंगा । तयो एकः पुत्रः जातः गंगा तं देवव्रत इति नाम अददात किन्तु 

कारणेतु गंगा राजप्रसादं त्यवा, पुत्रं नीत्वा (गृहित्वा) चे वने अगच्छत् । तत्र सा देवव्रतं धनुर्विघां तथा बहव्याः अन्याः विघाः आणि अपाठयत्। किशोर वयसे प्राप्ते देवव्रतः परशुरामं प्रति गत्वा अन्यान्य अस्यशस्त्र विघाः अप्राप्तेत्। यदा देवव्रतः षोडश वर्षीयः ।जातः तदा गंगा पुनरवि राजप्रसादं आगत्य तं पितुःसमिपे अर्पितवति । किन्तु स्वयं सा पुनरपि वने अगच्छत्।

तत्पश्चात् एकदा । सम्राट शंतनू वर्यः द्वितीं विवाहं कर्तुं ऐच्छत्। किन्तु कन्यायानु पिता एकाः धीवरराजा आसीत् ।सः प्रतिरोधं अकसत्।सःअकथयत् यदा मम दौहित्रःसम्राटं भवतुं न शक्नोति तदा केन कारणेन अह्म् अस्य विवाह -प्रस्तावस्य स्वीकारं करोमि। एतत् श्रृत्वा देवव्रतः कठिना प्रतिज्ञां कृतवान सः अकथयत्-
अहं राज्यं त्यजामि-राज्यं संरक्षणं तथामि कन्यायाःपिता अकथयत् साधु। मंगलम् भवतु ते । किन्तु तव पुत्रा


राज्यस्य लालसया युद्ध करिष्यान्ति। तदनपरि देवव्रतः द्वितीयां प्रतिज्ञां अकरोत् ।सः अकथयत्- अहं विवाहं एवन करिष्यामि । तव कन्यायाः पुत्रः पौत्रःएव सुरवेन राज्यं कुर्वन्तु
आत्यंता कठिन एव एषा प्रतिज्ञा आसित्। अनेन कारणेन देवव्रतः भीष्म इति नामाभिधानं अप्राप्तुन। जयतु भीन्मः जयतु गंगा । जयतु भारतियानाम् परम्परा। 
































शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

conceptual fallacy of transportation


conceptual fallacy of transportation - - you cant translate cultural connotations

Folks, I've been meaning to write this for months, given the importance of this topic. I think we need to tweak our understanding of this matter because it is way off the mark right now. The so-called translation problem is even worse than we think it is. It is not a problem involving words and meanings but is more of a theoretical problem that relates to the entire framework that shapes the way we think.

Ever since our colonization we have taken on the Abrahamic way of talking without really understanding what we are talking about. This has been one of the greatest failing of Hindus. While our enemies were busy studying us to death, we sat back and did not care to understand what their religion and culture were all about.
As a result of this, we adopted their way of thinking so that now we no longer have an intuitive understanding of many of the words in our own languages. This is especially true when it comes to talking about human psychology. We are as clueless about words such as manas and buddhi as as anyone from the West who wants to study our traditions. When it comes to words like these we do with them exactly what we do with words like deva andpuja.  We map them on to certain words in English and understand them in the way that the West has taught us to understand them. This is what is so insidious about the translation problem. It is not confined just to translation into English. It encompasses the way we talk in our native Indian languages. The framework of the western cultural experience has been so dominant in the last 300 years that language-use in Hindi, Kannada, Tamil, Gujarati, Marathi, Sanskrit, and every other Indian language has been distorted.

Please remember that many of these words have to do with basic human psychology. These are words that we use to talk about ourselves, our friends, husbands, wives, parents, kids, and other human beings. Therefore, we cannot sit back and proclaim that there are many Hindu experts and scholars who do know what they are talking about. Given the fundamental importance of a vocabulary that allows us to talk about ourselves, we cannot sit back and rely on a community of specialists. We must be able to relate to these words as we live and breathe. Even if our experts tell us what these words mean, how do we understand them in ourselves? Is my desire for a dosa an expression of mymanas or my buddhi? When I want to punch somebody, what prevents me: buddhi, chitta, manas, dharma, or, to use Christian terminology, the conscience? What if my buddhi and manasboth support me in wanting to punch someone? What then is the difference between the two? What do I need to train if I want to improve? How do I identify that entity? How do I know what trains it? Your experts, it turns out, will have to appeal to the words I already know in order to explain to me what buddhi or manas is. Merely knowing a word cannot help me identify it in myself. Our approach to studying human psychology was different from the subject 'psychology' that is taught in schools and universities. 

Distortions in our understanding of our own traditions had already started with the Islamic colonization. They became more systematized when the missionaries and European scholars began with their translations. The next level of distortion started when Indians themselves adopted this way of talking in English. Finally, distortions occurred when Indians then translated their way of talking in English back into the Indian languages. After all these distortions, there is no way of telling how the cognition of Indians has changed in the past few centuries. In many ways we are as clueless as anyone from the West who studies our traditions. What they learn from studying Patanjali is also what we learn by studying Patanjali. This is the reason why earlier generations of Indians did not object to the translations the British came up with. It’s because our understanding of Ishwara is as shallow as our understanding of God.

This problem cannot be solved by merely retaining words in our own language. As a first step we have to understand the culture that inflicted this framework that we have become trapped in. In other words, the so-called translation problem is a theoretical problem, and as long as we accept the theoretical framework provided by the West, whether it involves religion or cosmology or whether it has to do with human psychology, we will not be able to solve the problem.

We need to develop alternative theoretical frameworks to rival those of the West. Our frameworks may well be superior when talking about human psychology, let’s say. They may not be adequate when talking about the cosmos. Accordingly, we can adopt, adapt, or discard our frameworks. Meanwhile, just quibbling over the meaning of what brhamanda exactly means is a useless exercise. What may have been cutting edge at the time of Aryabhata and Agastya may not be relevant any more. The fact that we are willing to accept every bit of knowledge that was produced 5000 years ago without any critical reflection is further proof of the fact that we are so out of touch with our traditions. It is not about studying some ancient text but really understanding their approach to knowledge. With all due respect, merely using Sanskrit words in some contexts is a useless exercise. If we really understood what we were talking about, we would be able to express it in any language. 

Kind regards,
Divya Jhingran