संस्कृत-पत्रकारिता
:
इतिहास
एवं अधुनातन स्वरूप...
- डॉ. बलदेवानन्द सागर
संस्कृत-पत्रकारिता
के बारे में कुछ कहने से पहले
मैं सुधी पाठकों को ये बताना
चाहूँगा कि भले ही,
सामान्यरूप
से हिन्दी,
अंग्रेजी
या अन्य प्रचलित भाषाओं की
पत्रकारिता के
समान
संस्कृत-पत्रकारिता
की चर्चा न होती हो;
पर
आप को यह जानकर आश्चर्य होगा
कि
आज, इस
इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे
आधे दशक में भी,
भारत
के प्रायः सभी राज्यों और कुछ
विदेशों में भी संस्कृत-पत्र-पत्रिकाएँ
प्रकाशित हो रही हैं |
एक
प्रामाणिक समीक्षक के रूप
में संस्कृत-पत्रकारिता
के विषय में कुछ कहने के लिए
अभी मैं मनोमन्थन करके आपके
सामने जो कुछ रखने जा रहा हूँ,
वो
मात्र एक लेखक के रूप में ही
नहीं, परन्तु
पिछले ४२ वर्षों से आकाशवाणी
के साथ-साथ,
२२
वर्षों के दूरदर्शन के भी
संस्कृत-समाचारों
के सम्पादन,
अनुवाद
और प्रसारण के दीर्घकालीन
अनुभवों के आधार पर “संस्कृत-पत्रकारिता
के इतिहास एवं अधुनातन स्वरूप”
की व्याख्या करने का विनम्र
प्रयास कर रहा हूँ |
संस्कृत-पत्रकारिता
का इतिहास-
जब
भी हिन्दी-पत्रकारिता
की बात होती है तो हिन्दी के
प्रथम पत्र “उदन्त-मार्तण्ड”
[ १८२६
ई., सम्पादक-
पं.
जुगलकिशोर-शुकुल]
का
सन्दर्भ
अवश्य दिया जाता है |
ठीक
उसी तरह से,
संस्कृत-पत्रकारिता
के इतिहास में ईस्वी सन्
१८६६ में पहली जून को काशी से
प्रकाशित “काशीविद्यासुधानिधिः”
का उल्लेख अवश्य होता है |
संस्कृत-पत्रकारिता
की इस प्रथम-पत्रिका
का दूसरा नाम था –“ पण्डित-पत्रिका
|”
अभी,
जब
मैं इन पंक्तियों को लिख रहा
हूँ तो संस्कृत-पत्रकारिता
के १५० वर्ष और प्रायः दो महीने
पूरे हो रहे हैं |
इस
बात को ध्यान में रखकर
संस्कृत-प्रेमियों
और संस्कृतज्ञों के एक
राष्ट्रव्यापी
स्वैच्छिक-संघठन
“भारतीय संस्कृत-पत्रकार
संघ” [पञ्जी.]
ने
इस पूरे वर्ष में राष्ट्रीय-स्तर
पर अनेक कार्यशालाओं और
संगोष्ठियों के आयोजन का
संकल्प किया है |
यह
तथ्य, इस
बात का द्योतक है कि संस्कृत-पत्रकारिता
को व्यावहारिक रूप में राष्ट्र
की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए
संस्कृत-कर्मी
दिन-रात
अथक प्रयास कर रहे हैं |
संस्कृत-पत्रकारिता
के इतिहास की बात दोहराते हुए
कहना चाहूँगा कि “काशीविद्यासुधानिधिः”
[१-जून,१८६६]
से
शुरू हुयी इस संस्कृत-पत्रकारिता
की यात्रा में अनेक छोटे-बड़े
पड़ाव आये | इस
बिन्दु को समझने के लिए लोकमान्य
तिलक जी के
मराठी-भाषिक
‘केसरी’ का उल्लेख करना चाहूँगा
|
भारत
की भाषाई-पत्रकारिता
के
इतिहास में,
वैसे
तो अनेक दैनिक-मासिक
पत्र-पत्रिकाओं
का महत्वपूर्ण योगदान रहा है
किन्तु ‘केसरी’ की बात कुछ
ख़ास है | विष्णु
शास्त्री चिपलूणकर,
बालगंगाधर
तिलक, वामन
शिवराम आप्टे,
गणेश
कृष्ण गर्दे,
गोपाल
गणेश आगरकर और महादेव वल्लभ
नामजोशी के हस्ताक्षरों के
साथ ‘केसरी’ का उद्देश्य-पत्र
१८८०
ईस्वी.
की
विजयादशमी को मुम्बई के
‘नेटिव-ओपिनियन’
में प्रकाशित कराया गया |
‘केसरी’
के प्रकाशन का निर्णय तो हो
गया लेकिन मुद्रण के लिए पूँजी
की समस्या थी |
अन्ततः
नामजोशी की व्यावहारिक-कुशलता
के साथ ४-जनवरी
१८८१ को पुणे से साप्ताहिक
‘केसरी’ [मराठी]
का
प्रति मंगलवार को प्रकाशन
होने लगा |
जिस
बात की ओर मैं संकेत करना कहता
हूँ, वह
है पण्डितराज जगन्नाथ
के “भामिनीविलास”
का वह
समुपयुक्त संस्कृत-श्लोक,
जो
‘केसरी’ के उद्देश्य और कार्य
को द्योतित करता है |
विष्णु
शास्त्री चिपलूणकर द्वारा
चुना गया और ‘केसरी’ के मुखपृष्ठ
पर छपा यह श्लोक इस प्रकार है
–
“स्थितिं
नो रे दध्याः क्षणमपि
मदान्धेक्षण-सखे
!,
गज-श्रेणीनाथ
! त्वमिह
जटिलायां वनभुवि |
असौ
कुम्भि-भ्रान्त्या
खरनखरविद्रावित-महा-गुरु-ग्राव-ग्रामः
स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः
||”
[ अर्थात्
हे गजेन्द्र !
इस
जटिल वन-भूमि
में
तुम पलभर के लिए भी मत रूको,
क्योंकि
यहाँ पर पर्वत-गुफा
में वह केसरी [हरिपति]
सो
रहा है जिसने हाथी के माथे-जैसी
दिखने
की भ्रान्ति में बड़ी-बड़ी
शिलाओं को भी अपने कठोर नाखूनों
से चूर-चूर
[विद्रावित]
कर
दिया है ]
मेरा
विनम्र मन्तव्य यही है कि
तत्कालीन
भाषाई-पत्रकारिता
के लेखक-
सम्पादक-प्रकाशक
बहुतायत संख्या में
या तो संस्कृत के जानकार या
विशेषज्ञ थे या संस्कृत के
प्रति निष्ठावान्
थे
और
पत्रकारिता
के
समर्पित कार्य के लिए संस्कृत
के समृद्ध साहित्य का आश्रय
लेते थे | चूँकि
स्वाधीनता-प्राप्ति
के लिए जन-सामान्य
की भाषा में संचार और सम्वाद
करना ज़रूरी था,
इसलिए
विभिन्न भारतीय भाषाओं में
तुलनात्मक-रूप
से
अधिक और संस्कृत में कम,
पत्र-पत्रिकाएँ
छपती रहीं |
किन्तु
भारत के सभी राज्यों से प्रकाशित
होने वाली संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं
की बात करें तो किसी एक
प्रान्तीय-भाषा
या राष्ट्रभाषा हिन्दी या
अंग्रेजी-उर्दू
की तुलना में समग्ररूपसे
संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं
की संख्या अधिक मानी जा सकती
है | शोध
के आधार पर यह संख्या १२० से
१३० के बीच की कही जा सकती है
|
इस
छोटे-से
आलेख में पूरे डेढ़-सौ
सालों के इतिहास को विस्तार
से देना तो सम्भव नहीं है किन्तु
कुछ मुख्य
संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं
का अध्ययन करें,
तो
दो प्रकार की संस्कृत-पत्रिकाएँ
बहुतायत से मिलती हैं |
एक
तो वे जो मुख्यरूप से शोध-पत्रिका
के रूप में प्रकाशित होती रहीं
और शोध-लेखों,
प्राचीन-ग्रन्थों
और पाण्डुलिपिओं को ही प्रकाशित
करती रहीं |
दूसरी
वें, जो
एक सामान्य साप्ताहिक,
पाक्षिक
या मासिक पत्रिका के कलेवर
में प्रकाशित की जाती थीं,
जिनमें
प्रायः सभी विषयों की सामग्री
छपी मिलती थीं |
आज
स्थिति में
बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है |
ऐसा
लग रहा है कि संस्कृत-पत्रकारिता
का भविष्य उज्ज्वल है |
आश्वस्ति
के साथ कहा जा सकता है कि वह
दिन दूर नहीं जब युवा पीढ़ी के
अधिकाधिक युवक-युवतियाँ
संस्कृत पढ़ना-लिखना
और बोलना पसन्द करेंगे और
सामाजिक संचार-माध्यमों
में सभी भाषाओं की अपेक्षा
संस्कृत-विद्या
का अधिक प्रयोग होगा
आइये,
अब
कुछ विशेष पत्र-पत्रिकाओं
की बात करें –
संस्कृतपत्रकारिता
स्वतन्त्रता-संग्राम
की एक विशिष्ट उपलब्धि है |
नवीन
विचारों के सूत्रपात और
राष्ट्रीयता की वृद्धि में
इस ने अभूतपूर्व योगदान किया
है | शोध
से ये तथ्य सामने आया है कि
ईस्वी सन्
१८३२ में
बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी
ने अंग्रेजी और संस्कृत में
एक द्विभाषी शोध-पत्रिका
प्रकाशित की
थी
| इस
पत्रिका में संस्कृत साहित्य
की गवेषणाओं एवं पुरातन सामग्री
से आपूरित लेखादि प्रकाशित
होते थे | इसने
अंग्रेजी पढ़े-लिखे
संस्कृतज्ञों के हृदय में
नवीन चेतना का संचार किया और
राष्ट्र, भाषा
एवं साहित्य के प्रति गौरव
का भाव जागृत किया |
जैसा
कि पहले उल्लेख कर चुके हैं,
१
जून,
१८६६
ई. को
काशी-स्थित
गवर्नमेण्ट
संस्कृत
कॉलेज ने “काशी-विद्यासुधा-निधिः”
अथवा “पण्डित” नामक मासिक-पत्र
का प्रकाशन किया |
काशी
से ही १९६७ ई.
में
“क्रमनन्दिनी” का प्रकाशन
आरम्भ हुआ |
विशुद्ध
संस्कृत की ये दोनों पत्रिकाएँ
प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों
का प्रकाशन करती थीं |
इनमें
विशुद्ध समाचार-पत्रों
के लक्षण नहीं थे |
एप्रिल,
१८७२
ई. में
लाहौर से “विद्योदयः”
नए साज-सज्जा
के साथ शुद्ध समाचार-पत्र
के रूप में अवतरित हुआ |
हृषीकेश
भट्टाचार्य के सम्पादकत्व
में इस पत्रिका ने संस्कृत-पत्रकारिता
को अपूर्व सम्बल प्रदान किया
| “विद्योदयः”
से प्रेरणा पाकर संस्कृत में
अनेक नयी पत्र-पत्रिकाएँ
प्रकाशित होने लगीं |
बिहार
का पहला संस्कृत-पत्र
१८७८ ई. में
“विद्यार्थी” के नाम से पटना
से निकला | यह
मासिक पत्र १८८० ई.
तक
पटना से नियमित निकलता रहा
और बाद में उदयपुर चला गया,
जहाँ
से पाक्षिक रूप में प्रकाशित
होने लगा | कुछ
समय बाद, यह
पत्रिका श्रीनाथद्वारा से
प्रकाशित होने लगी |
आगे
चल कर यह हिन्दी की
“हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका”
और “मोहनचन्द्रिका” पत्रिकाओं
में मिलकर प्रकाशित होने लगी
| यह
संस्कृत-भाषा
का पहला पाक्षिक-पत्र
था जिसके सम्पादक पं.
दामोदर
शास्त्री थे एवं इसमें यथानाम
प्रायः विद्यार्थिओं की
आवश्यकता और हित को ध्यान में
रखते हुए सामग्री प्रकाशित
की जाती थी |
१८८०
ई. में
पटना से मासिक ‘धर्मनीति-तत्त्वम्’
का प्रकाशन हुआ,
किन्तु
इसके विषय
में
कोई ख़ास जानकारी नहीं मिल पाती
है और नहीं इसका कोई अंक उपलब्ध
है |
१७-अक्टूबर,
१८८४
ई. को
कुट्टूर [केरल]
से
‘विज्ञान-चिन्तामणिः’
नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन
आरम्भ हुआ |
कुछ
समय बाद,
प्रचारातिरेक
के कारण यह पत्रिका
पाक्षिक,
दशाह्निक
और अन्ततः साप्ताहिक हो गयी
| नीलकान्त
शास्त्री के सम्पादकत्व में
यह पत्रिका संस्कृत-पत्रकारिता
के विकास में मील का पत्थर
सिद्ध हुयी |
संस्कृत
की समृद्धि,
प्रतिष्ठा
और शिक्षाप्रणाली के परिष्कार
के लिए पं.
अम्बिकादत्त
व्यास द्वारा १८८७ ई.
में
स्थापित संस्था
‘बिहार-संस्कृत-संजीवन-समाजः’,
संस्कृत
के प्रचार-प्रसार
के लिए प्रयासरत रहा |
इसकी
पहली बैठक ५-एप्रिल,
१८८७
ई. में
हुयी, जिसकी
अध्यक्षता पॉप जॉन्
बेन्जिन्
ने की थी | इसमें
अनेक राज्यों से बहुत-सारे
लोग आये थे |
सचिव
स्वयं पं.
अम्बिकादत्त
व्यास जी थे |
इस
समाज द्वारा १९४० ई.
में
त्रैमासिक के रूप में
‘संस्कृत-सञ्जीवनम्’
का प्रकाशन आरम्भ किया गया
था
|
१९वीँ
शताब्दी के अन्तिम दो दशकों
में बहुत-सारी
संस्कृत-पत्रिकाओं
का प्रकाशन हुआ |
राष्ट्रिय-आन्दोलन
की दृष्टि से,
इन
सब में “संस्कृत-चन्द्रिका”
और “सहृदया” का विशेष स्थान
है |
पहले
कोलकोता और बाद में कोल्हापुर
से प्रकाशित होने वाली
“संस्कृत-चन्द्रिका”
ने अप्पाशास्त्री राशिवडेकर
के सम्पादकत्व में अपार ख्याति
अर्जित की |
अपने
राजनीतिक लेखों के कारण
अप्पाशास्त्री को कई बार जेल
जाना पड़ा |
संस्कृत-भाषा
का पोषण और सम्वर्धन,
संस्कृत-भाषाविदों
में उदार दृष्टिकोण का प्रचार
तथा सुषुप्त संस्कृतज्ञों
को राष्ट्र-हित
के लिए जगाना आदि उद्देश्यों
को ध्यान में रखकर “सहृदया”
ने राष्ट्रिय-आन्दोलन
में महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभायी |
२०वीं
शताब्दी के आरम्भ में लोकमान्य
तिलक के नेतृत्व में सारे देश
ने स्वदेशी आन्दोलन में भाग
लिया था
| संस्कृत-पत्रकारिता
के लिए ये सम्वर्धन का युग था
| उस
अवधि में देश के विभिन्न भागों
से अनेक संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं
का प्रकाशन हुआ,
जिनमें
‘भारतधर्म’ [१९०१
ई.], ‘श्रीकाशीपत्रिका’
[१९०७
ई.], ‘विद्या’
[१९१३
ई.], ‘शारदा’
[१९१५
ई.], ’संस्कृत-साकेतम्’
[१९२०
ई.] वगैरह
प्रमुख थीं |
‘अर्वाचीन
संस्कृत साहित्य’ के अनुसार
१९१८ ई. में
पटना से पाक्षिक ‘मित्रम्’
का प्रकाशन शुरू हुआ था |
इसका
प्रकाशन ‘संस्कृत-संजीवन-समाज’
करता था |
स्वतन्त्रता
संग्राम के दिनों में दूसरी
प्रमुख संस्कृत-पत्रिकाएँ
थीं – ‘आनन्दपत्रिका’ [१९२३
ई.], ‘गीर्वाण’
[१९२४
ई.], ‘शारदा’
[१९२४
ई.], ‘श्रीः’
[१९३१
ई.], ‘उषा’
[१९३४
ई.], ‘संस्कृत-ग्रन्थमाला’
[१९३६
ई.], ‘भारतश्रीः’
[१९४०
ई.] आदि
| १९३८
ई. में
कानपुर से अखिल भारतीय संस्कृत
साहित्य सम्मलेन का मासिक
मुखपत्र “संस्कृत-रत्नाकरः”
आरम्भ हुआ |
श्रीकेदारनाथ
शर्मा इसके सारस्वत सम्पादक-प्रकाशक
थे | १९४३
ई. में
राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ
की त्रैमासिक पत्रिका “गंगानाथ
झा रिसर्च जर्नल” आरम्भ की
गई |
स्वतन्त्रता
प्राप्ति के बाद की प्रमुख
संस्कृत-पत्रिकाओं
में,
‘ब्राह्मण-महासम्मेलनम्’
[१९४८
ई.],
‘गुरुकुलपत्रिका’
[१९४८
ई.], ‘भारती’
[१९५०
ई.], ‘संस्कृत-भवितव्यम्’
[१९५२
ई.], ‘दिव्यज्योतिः’
[१९५६
ई.], ‘शारदा’
[१९५९
ई.], ‘विश्व-संस्कृतम्’
[१९६३
ई.], ‘संविद्’
[१९६५
ई.], ‘गाण्डीवम्’
[१९६६
ई.], ‘सुप्रभातम्’
[१९७६
ई.], ‘संस्कृत-श्रीः’
[१९७६
ई.] ‘प्रभातम्’
[१९८०
ई.], ‘लोकसंस्कृतम्’
[१९८३
ई.], ‘व्रजगन्धा’
[१९८८
ई.], ‘श्यामला’
[१९८९
ई.] आदि
गिनी
जाती हैं |
इसी
अवधि में
[१९७०
ई.
में]
संस्कृत-पत्रकारिता
के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक
घटना हुयी जिसके महानायक थे
– मैसूरू,
कर्नाटक
के
सुप्रसिद्ध संस्कृत-विद्वान्,
गीर्वाणवाणीभूषण,
विद्यानिधि,
पण्डित-कळले-नडादूरु-वरदराजय्यङ्गार्य,
जिन्हों
ने
मैसूरू से
“सुधर्मा” नामक दैनिक संस्कृत
समाचार-पत्र
प्रकाशित कर के
विश्व-पत्रकारिता
के मञ्च
पर संस्कृत-पत्रकारिता
का ध्वज फहरा दिया |
यद्यपि
१९०७ ई., १-जनवरी
को थिरुअनन्तपुरम्
[केरळ]
से
“जयन्ती” नामक दैनिक
संस्कृत-समाचार-पत्र
प्रकाशित कर के श्रीकोमल-मारुताचार्य
और श्रीलक्ष्मीनन्द-स्वामी
ने एक अभूतपूर्व साहस किया
था किन्तु धन और ग्राहक-पाठक
के अभाव में
इस
संस्कृत-दैनिक
का प्रकाशन
कुछ दिनों बाद
ही
बन्द करना पड़ा |
कालान्तर
में,
कानपुर
से
भी
कुछ
समय
तक
“सुप्रभातम्”
नाम
का दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र
निकलता
रहा किन्तु पाठक-ग्राहक
के अभाव में
बन्द करना पड़ा |
संस्कृत-पत्रकारिता
का अधुनातन स्वरूप –
संस्कृत
भारत की सांस्कृतिक-धरोहर
है | इस
राष्ट्र की पहचान और अस्मिता
है | स्वतन्त्र-भारत
की भाषाई नीति के चक्रव्यूह
में न पड़कर आज संस्कृतपत्रकारिता
के क्षेत्र में नित-नूतन
हो रहे प्रयोगों की पड़ताल करें
तो लगता है कि विश्व की अधिकाधिक
भाषाएँ, इस
वैज्ञानिक और गणितात्मक
वाणी-विज्ञान
से लाभान्वित हो रही हैं |
computational linguistic science को
परिपोषित और सम्वर्धित करने
में संस्कृत के शब्दानुशासन
से अधिकाधिक मदद ली जा रही है
| ऐसे
परिदृश्य में किन्हीं कारणों
से शिथिल-गति
वाली संस्कृत-पत्रकारिता
अब, आधुनिक
संचार माध्यमों के सर्वविध
क्षेत्रों में और सामाजिक
संचार माध्यमों में अपनी
उपयोगिता और प्रभाव को स्थापित
कर रही है |
यदि
हम संस्कृत-पत्रकारिता
के आधुनिक-युग
को इक्कीसवीं शताब्दी का
आरम्भ-काल
मानें, तो
थोड़ा सिंहावलोकन करके बीसवीं
शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों
में हुयी सूचना-क्रान्ति
और तकनीकी विकास-प्रक्रिया
की समीक्षा को भी व्यापक-परिधि
में समझना होगा |
आप
सुधी पाठक मेरा संकेत समझ गए
होंगे |
अभी-अभी
हमने, संक्षेप
में संस्कृत-पत्रकारिता
के डेढ़सौ वर्षों के संक्षिप्त
इतिहास का विहंगम-अवलोकन
किया | इसी
शृंखला में एक और ऐतिहासिक
घटना हुयी और भारत-सरकार
के सूचना-प्रसारण-मन्त्रालय
ने आरम्भ में प्रयोगात्मक-रूप
से १९७४ ई. के
३०-जून
को सुबह ९-बजे,
आकाशवाणी
के दिल्ली-केंद्र
से संस्कृत-समाचारों
का प्रसारण करके उन तमाम
भ्रान्तियों और मिथकों को
ध्वस्त कर दिया,
जो
कहते थे कि संस्कृत,
आम
बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती
है या तकनीकी विचारों को संस्कृत
में अभिव्यक्त नहीं किया जा
सकता है | इस
राष्ट्रिय समाचार-प्रसारण
की लोकप्रियता और सर्वजन-ग्राह्यता
के कारण, कुछ
महीनों बाद,
पाँच-मिनिट
का संस्कृत-समाचारप्रसारण
का एक और बुलेटिन शाम को [६.१०
बजे] प्रसारित
होने लगा |
इतना
ही नहीं, १९९४
ई. में
२१-अगस्त,
रविवार
को दूरदर्शन ने साप्ताहिक
संस्कृत-समाचार
प्रसारण आरम्भ करके एक नया
कीर्तिमान स्थापित किया |
सौभाग्य
से, दूरदर्शन
से प्रथम संस्कृत-समाचार
प्रसारण का सौभाग्य इन पंक्तियों
के लेखक को मिला |
कुछ
वर्षों बाद दूरदर्शन का यह
साप्ताहिक प्रसारण,
प्रतिदिन
पाँच मिनिट के लिए कर दिया गया
|
इसी
काल-खण्ड
में, एक
और ऐतिहासिक घटना के कारण
संस्कृत-पत्रकारिता
की मन्द गति तीव्रतर बन गयी
| संस्कृत
के कुछ उत्साही युवा इन दशकों
में संस्कृत को बोलचाल की भाषा
बनाने के लिए संगठनात्मक-रूप
से सक्रिय थे और राष्ट्रव्यापी
अभियान के तहत यह कार्य कर रहे
थे | बंगलूरु
में कार्यरत “हिन्दू-सेवा-प्रतिष्ठानम्”
और
अधुनातनरूप में,
“संस्कृत-भारती”
तथा “लोकभाषा-प्रचार-समितिः”
आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हों
ने संस्कृत-पत्रकारिता
के अधुनातन स्वरूप को व्यवस्थित
और व्यापक बनाकर प्रत्येक
संस्कृत-अनुरागी
को आश्वस्त किया कि वह दिन दूर
नहीं जब भारत का युवा नागरिक
संस्कृत में धाराप्रवाह अपनी
बात कह सकेगा |
इस
शृंखला में “संस्कृत-भारती”
ने १९९९ ई. में
बंगलूरू से मासिक-पत्रिका
“सम्भाषण-सन्देशः”
प्रकाशित करना आरम्भ किया |
यह
मासिक-पत्रिका
अपनी साज-सज्जा,
सरल
भाषा और विषय-वैविध्य
के कारण देश-विदेश
में बहुत लोकप्रिय है |
इसी
प्रकार से कुछ और पत्र-पत्रिकाएँ
हैं - संवित्
[ पाक्षिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-बाल-संवादः
[ मासिकं
पत्रम् ],
गीर्वाणी
[ मासिकं
पत्रम् ],
महास्विनी
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
आरण्यकम्
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-सम्मेलनम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
अर्वाचीन-संस्कृतम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
आर्षज्योतिः
[ मासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-प्रतिभा
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-मञ्जरी
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-वार्त्ता
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-विमर्शः
[ वार्षिकं
पत्रम् ],
अभिव्यक्ति-सौरभम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
अतुल्यभारतम्
[ मासिकं
पत्रम् ],
संस्कृतवाणी
[ पाक्षिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-सम्वादः
[ पाक्षिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-रत्नाकरः
[ मासिकं
पत्रम्],
दिशा-भारती
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
देव-सायुज्यम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-वर्तमानपत्रम्
[ दैनिकं
पत्रम् ],
विश्वस्य
वृत्तान्तम् [
दैनिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-साम्प्रतम्
[ मासिकं
पत्रम् ],
निःश्रेयसम्
[षाण्मासिकं
पत्रम् ],
श्रुतसागरः
[ मासिकं
पत्रम् ],
सेतुबन्धः
[ मासिकं
पत्रम् ],
हितसाधिका
[पाक्षिकी
पत्रिका],
दिव्यज्योतिः
[ मासिकं
पत्रम् ],
रावणेश्वर-काननम्
[ मासिकं
पत्रम् ],
रसना
[ मासिकं
पत्रम् ],
दूर्वा
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
नाट्यम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
सागरिका
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
ऋतम्
[ द्विभाषिकं
मासिकं पत्रम् ],
स्रग्धरा
[ मासिकं
पत्रम्
],
अमृतभाषा
[ साप्ताहिकं
पत्रम् ],
प्रियवाक्
[ द्वैमासिकं
पत्रम् ],
दिग्दर्शिनी
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
वसुन्धरा
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-मन्दाकिनी
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
लोकप्रज्ञा
[ वार्षिकं
पत्रम् ],
लोकभाषा-सुश्रीः
[ मासिकं
पत्रम् ],
लोकसंस्कृतम्
[त्रैमासिकं
पत्रम् ],
विश्वसंस्कृतम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
स्वरमङ्गला
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
भारती
[ मासिकं
पत्रम् ],
रचना-विमर्शः
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
सरस्वती-सौरभम्
[ मासिकं
पत्रम् ]
संस्कृतश्रीः
[ मासिकं
पत्रम् ],
वाक्
[ पाक्षिकं
पत्रम् ],
अजस्रा
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
परिशीलनम्
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
प्रभातम्
[ दैनिकं
पत्रम् ],
व्रजगन्धा
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
संगमनी
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
विश्वभाषा
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ],
भास्वती
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
कथासरित्
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
दृक्
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
वाकोवाकीयम्
[ षाण्मासिकं
पत्रम् ],
वैदिक-ज्योतिः
[षाण्मासिकं
पत्रम् ],
अभिषेचनम्
[षाण्मासिकं
पत्रम्],
अभ्युदयः
[षाण्मासिकं
पत्रम्]
सत्यानन्दम्
[ मासिकं
पत्रम् ],
संस्कृत-साहित्य-परिषत्-पत्रिका
[ त्रैमासिकं
पत्रम् ] आदि
| इन्होंने
संस्कृत-पत्रकारिता
के क्षेत्र को अधिक सक्रिय
बना दिया है |
इसके
अलावा संस्कृत की एक न्यूज-एजेन्सी
है- News
in Sanskrit
[ News agency ] Hindustan
Samachar
| अभी-अभी
सूचना मिली है कि पूर्वी दिल्ली
से पिछले कुछ दिनों
से “सृजन-वाणी”
नाम का दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र
प्रकाशित किया जा रहा है |
इन
सब संस्कृत-पत्रकारों
और संस्कृत-कर्मियों
को हार्दिक अभिनन्दन और
मंगलकामनाएँ !
बहुत-सारी
ई-पत्रिकाएँ
हैं जिनमें
प्राची
प्रज्ञा [मासिकी
ई-पत्रिका
],
जान्हवी
[ त्रैमासिकी
ई-पत्रिका
],
संस्कृत-सर्जना
[ त्रैमासिकी
ई-पत्रिका
] और
सम्प्रति
वार्त्ताः [दैनिकं
ई-पत्रम्
] आदि
प्रमुख हैं |
सुधी
पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य
भी होगा कि पिछले तीन साल से
www.divyavanee.in
के
नाम से संस्कृत-भाषिक-कार्यक्रमों
को प्रसारित करने वाला एक
चौबीस घन्टे का online
radio भी
है जो कि पाण्डिचेरी से डॉ.
सम्पदानंद
मिश्र के नेतृत्व में चलाया
जा रहा है |
राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान
और श्रीलाल-बहादुर-शास्त्री-राष्ट्रिय-संस्कृत-विद्यापीठ-जैसे
संस्थानों और विश्वविद्यालयों
ने संस्कृत-पत्रकारिता
के पाठ्यक्रमों को आरम्भ कर
दिया है | आशा
की जा सकती है कि कुछ ही समय
में इन संस्थानों से प्रशिक्षित
हो कर संस्कृत के पूर्णकालिक
पत्रकार सक्रिय हो जायेंगे
|
पिछले
दो वर्षों में केरल में चार
लघु-चलचित्र
संस्कृत-भाषा
में बन कर दर्शकों को दिखाए
जा चुके हैं |
थिरुवनंतपुरम्
से मलयालम-भाषिक
दृश्यवाहिनी “जनम्”
ने २०१५ ई. के
२-ओक्टोबर
से नियमितरूपसे प्रतिदिन
१५-मिनिट्स
के लिए संस्कृत-समाचारों
का प्रसारण आरम्भ किया है |
इन
सब तथ्यों
के मद्देनज़र,
पूर्ण
विश्वास के साथ कहा जा सकता
है कि संस्कृत-पत्रकारिता
का भविष्य सकारात्मक और उज्जवल
है |
- डॉ. बलदेवानन्द सागर
- 9810 5622 77