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शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

गीता किसके लिये

 24 Feb 2007
गीता किसके लिये?

     गीता इतना पुरातन ग्रंथ है कि आम आदमी को गलतफहमी हो सकती है कि यह केवल बुढापे में परमात्मा का स्मरण करवाने के लिये उपयुक्त है। लेकिन मैंकहती हूँ कि यह बडी व्यावहारिक और उपयोगी विषयवस्तु है जो हर उमर में और हर मौके पर सही- गलत की पहचान करवानी है।
     यदि आपके सामने भगवद्गीता पर एक अच्छी पुस्तक रखी गई और आप सोच रहे है, इसे पढूँ या ना पढूँ? या चॅनेल सर्फिंग में यही प्रोग्राम आपके सामने आया और आपके मन में प्रश्न आया- इसे देखूँ या न देखूँ? क्या यह मेरे लिये relevant हैं? एक लीडर के लिये, जो लीडरी करना चाहता है और अच्छे- बुरे का विचार किये बगैर अपने लिये धन और सुखोपभोग भी जुटाना चाहता है। क्या गीता में उसके लिये भी tips हैं- जरुर हैं। क्यों कि गीता में लीडर के लिये tips हैं। लेकिन उनका पालन अल्प कालीन रहेगा- शाश्वत नही, वह दिखावा होगा यथार्थनही। क्यों कि  कोई भी लीडर अपने followers के सामने अपने अनैतिक चरित्र का आदर्श नही रह सकता।वैसे followers उसके नही रहेंगे। तो थोडे ही समय में ऐसे लीडर से गीता छूट जायगी।
     लीडर का पहला गुण है- कि औरों से wavelength जुटी रहे- communication skills हों, motivate कर सकता हो।
     गीता का सारांश देखना हो तो इस वाक्य में देखा जा सकता है।तस्मात् योगी भवार्जुन। यह एक आदेश है।लेकिन केवल आदेश देकर कृष्ण चुप नही बैठते। बारीकियाँ समझाकर बताते हैं कि योगी के लक्षण क्या हैं औरयोगी की सिध्दी के लिये क्या क्या करना है कैसे करना है।
     छठवां अध्याय जो कि आत्मसंयम योग कहा गया है, यह एक लम्बी यात्रा को आनन्ददायी बनाने वाली कविता है।
     जो कर्मक फल पर आश्रित नही है, वह योगी है और वही संन्यासी है।
     गीता में बार बार कहा है- संन्यासी क्या है? वह नही जो सबकुछ छोड छाड कर कहीं दूर गिरा कंदराओं मे भटकने के लिये निकल
पडा। बल्कि वह जो दुगुने उत्साह से काम में लग गया।लेकिन उत्साह भी कैसा? जिसमें काम ही सर्वोपरि है- फल की आकांक्षा नही।
     एक बार अर्जुन को ये तो कह दिया कि कर्मपर ही तेरा अधिकार है, फल पर नही- यह भी डाँट डपर कर कह दिया कि खबरदार फलेच्छा न रखना।लेकिन अब इसका यश गा रहे हैं। जो कर्मफल से परे हो गया, वह योगी हो गया- मुदित हो गया, आनंदित हो गया।
     मैंने अक्सर देखा है और अपने घर परिवार में बच्चो को भी समझाया कि परीक्षा में नंबर लाना यही सबका ध्येय है। विषय चाहे समझ में आये या न आये। मैं बच्चों से कहती- तुम्हें परीक्षा में नंबर आयें या नं आयें, मैं पहले पूछूँगी विषय का ज्ञान आया या नही? मेरी परीक्षा में पास होकर दिखाओ तो मानूँ।कोई विषय उठाओ और देखो कि यह कितनी गहराई तक तुम्हें आया।
     एक प्रसंग है तैराकी का। कितने लोग तैरने में expert होते हैं। पानी में डुबकी लगाते हैं। पानी के अंदर जाते ही थोडासा हल्कापन महसूस करते हैं। जितना तय किया था, उतना तैरकर बाहर आ जाते हैं।या जिन देशों में जिन घरों में टब में पानी भर उसी में नहाने का रिवाज है, वे वही करते हैं। लेकिन आर्किमिडिज एक वैज्ञानिक था- नहाने के लिये टब में घुसा तो इधर थोडा पानी छलक कर गिरा, उधर देह में कुछ हलकापन महसूस हुआ और उसका दिमाग जो सजग था- उसने खट् से पकड लिया- यह जो पानी बाहर गिरा, इसका और मेरे शरीर के वजन घटने का कोई संबंध है। वह टब से निकलकर नंगा ही सडकों पर दौडा गया- युरेका , युरेका- अर्थात् मैंने पा लिया, मैंने पा लिया- क्या पा लिया? रहस्य पा लिया। कैसा रहस्य? तो यह जो दिमाग की सजगता है, हर क्षण के कार्यकलाप को पकडना, समझना, छोडना और अगले क्षण     के लिये तत्पर हो जाना यह कहाँ से आती है?  यह तब आती है यदि हम कर्म में पूरी तरह जुटे हैं, फिर भी कर्मफल पर आश्रित नही हों।
     यहाँ बडी विचारणीय बात है,क्या हमें goal focussed नही होना है? यदि कर्मफल के प्रति मोह नही रखना है तो उस लक्ष्य पर /goal पर हमारी आँख नही रहेगी।
      तो गीता की सीख यह नही है। goal पर focus रखना है- उसी के लिये कर्म करने हैं और कुशलता के साथ करने हैं।तो छोडना किसे है-? छोडना है उस सुख- दुख को जो जय- पराजय से स्तुती- निंदा से, यश- अपयश से आते हैं।
      मैं अपने आनंद के लिये उस जय- या यश पर आश्रित नही हूँ ,बल्कि मेरा आनंद इस बात से आता है कि मैं काम कर रही हूँ और अच्छी तरह से कर रही हूँ। लक्ष्य पर निगाह रख कर रही हूँ। कुशलता पूर्वक, सतर्कता पूर्वक, तन्मयता पूर्वक। उस कार्य को करते करते मेरी इन्द्रियाँ एक लय में निबध्द हो जायें।
      एक प्रसंग मुझे याद आता है कि मैं अपने बेटे को कार चलाना सिखा रही थी। उसे अच्छी खाली प्रॅक्टिस हो गई। स्पीड बढाना, घटाना, ब्रेक लगाना, ओव्हरटेक, रिवर्स।RTO में जाकर टेस्ट देनी थी तो मैंने समझाया - देखो, टेस्ट जाने से पहले मेरी टेस्ट में पास होना पडेगा। क्या है वह टेस्ट? कि जब गाडी चलाओ, तब दिमाग से नही बल्कि शरीर के अवयों से गाडी चलनी चाहिये। जब आँख के कोने से दिख जाये कि कोई रास्ते में आनेवाला है तो यह संवेदना या ज्ञान पहले दिमाग में पहुँचता है या पहले पैर ब्रेक दबाने के लिये तैयार हो जाते हैं? यदि पैर पहले तैयार हैं तो टेस्ट मे पास। यदि कान्शख दिमाग के आदेश पर पैरों को ब्रेक लगाना पडे तो इसका अर्थ है कि अभी और प्रॅक्टिस आवश्यक है।

अमानिक्नमदाम्भिमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मनविनिग्रहः। ७
इन्द्रियार्थेषु.........
                                      दर्शनम।८
मयिचान्न्य योगेन
                                       जनसंसदि
अध्यात्म               तत्वज्ञानार्थ......
                                        यदतोन्यथा।१३

मनकी अहिंसा भावना इन्द्रियों के माध्यम से प्रगट होती है। अनः जिसके मनमे अहिंसा है उसका बोलना मधुर, हस्तस्पर्श सुखकर, दृष्टि कृपावंत हो जाती है।
      भगवद्गीता में संकल्पनाओं की प्रस्तुति है, उनके एक सुंदरसंकल्पना है विभूतियोग। केषु केषुच भावेषु चिन्त्यो सि? अर्जुन पूछता है, हे कृष्ण, मैं तुन्हें किस किस रूप में देखूँ? उस अपने सुंदर आनंददायी स्वरूप के विषय में तुम स्वयं बताओ।और भगवान भी जो इतनी देर से मैं निर्गुण हूँ, निराकार हूँ, परब्रह्म हूँ इत्यादि कहे जा रहे थे, वो सारे सिध्दान्त अलग रखकर उन्होंने अपनी पहचान के संकेत बता दिये।
     यह कहना कि सामान्य व्यक्ति भगवान नही बन सकता- इस सिध्दान्त को ही भगवान ने धता बता दिया।हर व्यक्ति भगवान के समकक्ष बन सकता है, अपने अस्तित्व के माध्यम से इतर जनों को भगवान के होने की प्रचीती करा सकता है। सामान्य मनुष्य के मन को दिव्यता का शिखर दिखाकर उसे रास्ता बता दिया- एक चॅलेंज के साथ या एक शाबासी के साथ- कि देख लो, वह जो शिखर है, वह गुण मेरा परिचायक है उसे प्राप्त करो और मेरे समकक्ष हो जाओ।
     हर मनुष्य के मन में एक ललक होती है, कुछ कर गुजरने की ऐसे कर्तृत्ववान विभूतियोग है- यह हमें गुणों की परख भी दिखाता है और उन गुणों का निर्वाह करने के लिये भी प्रेरणा देता है।

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