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शनिवार, 28 मई 2016

आठ प्रहर


दिन-रात मिलाकर 24 घंटे में हिंदू धर्म अनुसार होते हैं। औसतन एक प्रहर तीन घंटे का होता है जिसमें दो होते हैं। 
एक प्रहर तीन घंटे या साढ़े सात घटी का होता है। एक घटी 24 मिनट की होती है। दिन के चार और रात के चार मिलाकर कुल आठ प्रहर। भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है। प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।

के नाम :
दिन के चार प्रहर- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह और सायंकाल। रात के चार प्रहर- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। प्रत्येक प्रहर में गायन, पूजन, जप और प्रार्थना का महत्व है।
सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। 
दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं।

वैष्णव मन्दिरों में की सेवा-पूजा का विधान 'अष्टयाम' कहा जाता है। वल्लभ सम्प्रदाय में मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती तथा शयन के नाम से ये कीर्तन-सेवाएं हैं। अष्टयाम हिन्दी का अपना विशिष्ट काव्य-रूप जो रीतिकाल में विशेष विकसित हुआ।


The traditional system of praharas overlaps (but does not coincide) with the more precise traditional system of muhurtas, which is based on precise astronomical calculations.

Thus, the day can be regarded as divided into eight praharas (of three hours each) or thirty muhurtas (of 48 minutes each). In both systems, the day commences with sunrise. The timing of the two systems coincides only at sunrise and sunset (four praharas coincide with fifteen muhurtas

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 महर्षि मरीचि ब्रह्मा के अन्यतम मानसपुत्र और एक प्रधान प्रजापति हैं। इन्हें द्वितीय ब्रह्मा ही कहा गया है। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि है। यह दक्ष के दामाद और शंकर के साढू थे।

इनकी पत्नि दक्ष- कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्नियां थी- कला और उर्णा। संभवत: उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर का अपमान किया था। इस पर शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।

इन्होंने ही भृगु को दण्डनीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्रशिखण्डी कहा गया है। ब्रह्मा ने पुष्करक्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्मपुराण का दान पहले-पहल ब्रह्मा ने इन्हीं को किया था। वेद और पुराणों में इनके चरित्र का चर्चा मिलती है। 

मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी। ब्रह्मा के पोते और मरीचि के पुत्र कश्यप ने ब्रह्मा के दूसरे पुत्र दक्ष की 13 पुत्रियों से विवाह किया। मुख्यत इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए।

कश्यय पत्नी- अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्ठा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएं कही जाती हैं। इन माताओं को ही जगत जननी कहा जाता है।

यहां यह बताना जरूरी है कि बहुत से विद्वान मानते हैं कि कश्यप ने दक्ष की 17 कन्याओं से विवाह किया था लेकिन ऐसा नहीं है। वो तार्क्ष्य कश्यप थे जिन्होंने विनीता कद्रू, पतंगी और यामिनी से विवाह किया था। इस तरह ये 17 कन्याएं होती है, लेकिन कुछ विद्वान सभी को कश्यप की पत्नी मान कर लिखते हैं। कश्यप ऋषि ने दक्ष की सिर्फ 13 कन्याओं से ही विवाह किया था।

कश्यप की पत्नी अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) की उत्पत्ति हुई।

कश्यप के आदिति से 12 आदित्य पुत्रों का जन्म हुए जिनमें विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।

वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- 1.इल, 2.इक्ष्वाकु, 3.कुशनाम, 4.अरिष्ट, 5.धृष्ट, 6.नरिष्यन्त, 7.करुष, 8.महाबली, 9.शर्याति और 10.पृषध।

इक्ष्वाकु के पुत्र और उनका वंश : मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु के तीन पुत्र हुए:- 1.कुक्षि, 2.निमि और 3.दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। भगवान राम इक्षवाकु कुल में ही जन्में।

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सबसे प्रथम धर्मग्रंथ : वेद की वाणी को ईश्वर की वाणी कहा जाता है। वेद संसार के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है। 'श्रु' धातु से 'श्रुति' शब्द बना है। 'श्रु' यानी सुनना। कहते हैं कि इसके मंत्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे।

सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को वेद ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य

तत्पश्चात अन्य मनु --
स्वायम्भु, स्वरोचिष, औत्तमी, तामस, मनु, रैवत, चाक्षुष।
वर्तमान - वैवश्वत मनु।






















गुरुवार, 12 मई 2016

झोपतो------
उठतो-----------  उत्तिष्ठति
बसतो---------उपविशति
खातो-------------खादति
पितो----------- पिबति
जातो---------गच्छति
येतो---------------आगच्छति
गातो--------------
नाचतो------------नृत्यति
खेळतो --------क्रीडति
पळतो----------------धावति
चालतो------------------चलति
थांबतो----------------तिष्ठति
बोलतो ---------------- वदति
रडतो------------------रोदति
हसतो----------------हसति
देतो --------------ददाति
घेतो-------------------
विचारतो-------------पृच्छति
दाखवतो----------------दर्शयति

शुक्रवार, 6 मई 2016

गीता अध्याय १० विभूति-वर्णन

गीता अध्याय १० विभूति-वर्णन
http://geetahindi.blogspot.com/2012/09/10.html

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्‌ ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ (२१)


वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ (२२)


रुद्राणां शङ्‍करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌ ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌ ॥ (२३)


पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्‌ ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ (२४)



महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ (२५)

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ (२६)

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ (३३
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ (३४)
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌ ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥ (३५)
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ॥ (३६)


वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ (३७)


दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌ ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ ॥ (३८)


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥ (३९)



नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ (४०)


यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥ (४१)


अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥ (४२)



ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥