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शनिवार, 29 नवंबर 2014

दैनिक व्यवहारोपयोगी संस्कृत वाक्य व उक्तियाँ

दैनिक व्यवहारोपयोगी संस्कृत वाक्य व उक्तियाँ

अजीर्णे भोजनं विषम्
अपाचन हुआ हो तब भोजन विष समान है ।

कुभोज्येन दिनं नष्टम् ।
बुरे भोजन से पूरा दिन बिगडता है ।

मनः शीघ्रतरं वातात् ।
मन वायु से भी अधिक गतिशील है ।

न मातुः परदैवतम् ।
माँ से बढकर कोई देव नहीं है ।

गुरुणामेव सर्वेषां माता गुरुतरा स्मृता ।
सब गुरु में माता को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है ।

वस्त्रेण किं स्यादिति नैव वाच्यम् ।
वस्त्रं सभायामुपकारहेतुः ॥
अच्छे या बुरे वस्त्र से क्या फ़र्क पडता है एसा न बोलो, क्योंकि सभा में तो वस्त्र बहुत उपयोगी बनता है !

वृध्दा न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।
जो धर्म की बात नहीं करते वे वृद्ध नहीं हैं ।

अन्तो नास्ति पिपासयाः ।
तृष्णा का अन्त नहीं है ।

मृजया रक्ष्यते रूपम् ।
स्वच्छता से रूप की रक्षा होती है ।

भिन्नरूचिर्हि लोकः ।
मानव अलग अलग रूचि के होते हैं ।

तृणाल्लघुतरं तूलं तूलादपि च याचकः ।
तिन्के से रुई हलका है, और याचक रुई से भी हलका है ।

मौनं सर्वार्थसाधनम् ।
मौन यह सर्व कार्य का साधक है ।

सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् ।
शास्त्र सबकी आँख है ।

षटकर्णो भिद्यते मन्त्रः ।
मंत्र षटकर्णी हो तो उसका नाश होता है ।

बालादपि सुभाषितम् ग्राह्यम्।
बालक के पाससे भी अच्छी बात (सुभाषित) ग्रहण करनी चाहिए ।

साक्षरा विपरीताश्र्चेत् राक्षसा एव केवलम् ।
साक्षर अगर विपरीत बने तो राक्षस बनता है ।
कुलं शीलेन रक्ष्यते ।
शील से कुल की रक्षा होती है
शीलं भूषयते कुलम् ।
शील कुल को विभूषित करता है ।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।
अप्रिय हितकर वचन बोलनेवाला और सुननेवाला दुर्लभ है ।

उत्तिष्ठत जाग्रत
प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥ कठ उपनिषद् 1.3.14 ॥