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शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

श्रीगीतामंजूषामंथन 20 -- प्रश्नसंच अध्याय 1, 1,15,16

 GMM 20  दि 12-07-2023  योगेश्वर (शालेय) अध्याय १-१

श्लोक पूर्ण म्हणा

          १) दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं….
          २) अनन्तविजयं राजा…..
          ३) निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः …..    
      वचन ओळखा
                १)  महत्पापं
               २) मातुलाः
               ३) शङ्खौ    
             एका ओळीत उत्तर सांगा
                    १) कौरवांच्या आईचे नाव काय
                    २) युद्धात घटोत्कच कसा मेला
                      ३) भीष्माचे पहिले नाव काय?
   या शब्दाशी संलग्न पुरुष ओळखा
                   १)   स्थापय
                   २) इच्छामि
                    ३) समागताः     
काळ  किंवा लकार सांगा 
                 १) प्रदुष्यन्ति
               २) दध्मौ
                ३) विद्मः
    संधि सोडवा
            १)  एवमुक्तो
           २) महत्पापं
           ३) कृपश्च

GMM 20  दि 12-07-2023   योगेश्वर (शालेय) अध्याय १-२ 
  तीन श्लोक सलग म्हणा
                    १) निमित्तानि च पश्यामि ….
                    २) अत्र शूरा महेश्वासा ..
समास ओळखा अध्याय १ 
        १) मधुसूदनः
       २) वर्णसंकरः
       ३) स्वजन
विभक्ति सांगा अध्याय  १
             १) नरके
               २) सुखानि
            ३) गुडाकेशेन
  एका ओळीत उत्तर सांगा
              १)  अठराव्या अध्यायाचे नाव
              २) पाचव्या अध्यायचे नाव
             ३) सहाव्या अध्यायाचे नाव    
शब्दार्थ सांगा अध्याय १ 
         १) महीकृते
         २) रणसमुद्यमे
           ३) द्विजोत्तम
 संधि करा अध्याय  १ 
        १) तत्  + मे
       २) भीष्मम् + अहम्
       ३) किम् + अकुर्वत
 
 GMM 20  दि 12-07-2023   संपदा अध्याय 16-१
श्लोक पूर्ण करा
            १) तानहं द्विषतः क्रूरान् ….
           २) द्वौ भूत सर्गौ … 
           ३) तस्माच्छात्रं प्रमाणं …..
लिंग ओळखा
        १) ह्रीः
       २) यज्ञः 
       ३) आर्जवम्
 या शब्दाशी संलग्न वचन ओळखा
            १) नराधमान्
              २) क्षिपामि
            ३) भूतसर्गौ
या शब्दाशी संलग्न पुरुष ओळखा
       १) अर्हसि
       २) शृणु
         ३)  धृतिः
 काळ  किंवा लकार सांगा 
             १) भविष्यति 
               २) प्राप्स्ये
            ३) पतन्ति 
संधि सोडवा
        १) इदमद्य
       २) एतावदिति
       ३) कोsन्योस्ति
 
 GMM 20  दि 12-07-2023  संपदा अध्याय 16-२ 
तीन श्लोक सलग म्हणा          
          १) तेजः क्षमा धृतिः ….
         २) इदमद्य मया लब्धं
समास ओळखा अध्याय 16
            १)  मनोरथं
           २) त्रिविधं
           ३) सत्वसंशुद्धिः
विभक्ति सांगा अध्याय 16
             १) अभिजातस्य
           २) कामभोगेषु 
            ३) दम्भेन
एका ओळीत उत्तर सांगा
             १) व्यासांच्या मुलाचे नाव काय 
            २) जनमेजयाने सपसत्र का केला? 
            ३) भीष्माला उत्तरायणात मृत्यू का हवा होता 
शब्दार्थ सांगा अध्याय 16
                १) अज्ञानविमोहितः
               २) हनिष्ये 
                ३) शास्त्रविधानोक्तं
संधि करा अध्याय 16
        १)  नरके  + अशुचौ
       २) अभि + असूयकाः
       ३) आसुरिषु + एव

 GMM 20  दि 12-07-2023   हुजूरपागा शाळा अध्याय १५ - १
श्लोक पूर्ण करा
            १) न रूपमस्येह …. 
           २) शरीरं यदवाप्नोति...
           ३) अहं वैश्वानरो भूत्वा….
लिंग ओळखा
       १)  गुह्यतमं
       २)  स्मृतिः
       ३)  प्रवृत्तिः    
संक्षेपाने उत्तर सांगा
       १) कृष्णाच्या शंखाचे नाव 
       २) अग्निची 2 नावे सांगा
       ३) पाच पांडवांची नावे    
  या शब्दाशी संलग्न पुरुष ओळखा
          १)  कर्षति
          २)  धारयामि
          ३)  विद्धि 
शब्दाशी संलग्न वचन ओळखा
     १) छंदांसि
    २) पुरुषौ
    ३) प्रसृताः  
संधि सोडवा
      १) अश्वत्थमेनं
      २) पदमव्ययं
      ३) तद्धाम 
 
GMM 20  दि 12-07-2023   हुजूरपागा शाळा अध्याय १५ - १
 श्लोक पूर्ण करा
        १) न रूपमस्येह …. 
       २) शरीरं यदवाप्नोति...
       ३) अहं वैश्वानरो भूत्वा…
 लिंग ओळखा
       १)  गुह्यतमं
       २)  स्मृतिः
       ३)  प्रवृत्तिः    
 संक्षेपाने उत्तर सांगा
       १) कृष्णाच्या शंखाचे नाव 
       २) अग्निची 2 नावे सांगा
       ३) पाच पांडवांची नावे    
या शब्दाशी संलग्न पुरुष ओळखा
      १)  कर्षति
      २)  धारयामि
      ३)  विद्धि 
शब्दाशी संलग्न वचन ओळखा
     १) छंदांसि
    २) पुरुषौ
    ३) प्रसृताः   
संधि सोडवा
      १) अश्वत्थमेनं
      २) पदमव्ययं
      ३) तद्धाम 
 
 GMM 20  दि 12-07-2023   प्रेक्षक -  १
श्लोकपूर्ति
         १)  पाञ्चजन्यं हृषीकेशो ...... 
        २) ऊर्ध्वमूलमधःशाखं….
        ३) अभयं सत्वसंशुद्धिः …..
लिंग ओळखा
      १)  महारथः
      २) अद्रोहः
     ३) अश्वत्थं     
वचन ओळखा 
            १) सुघोषमणिपुष्पकौ
          २) द्वाविमौ  
          ३) क्रोधपरायणाः
या शब्दाशी संलग्न पुरुष ओळखा
       १)  अहं
       २) सा
         ३) यूयम् 
काळ  किंवा लकार सांगा 
             १)  अब्रवीत्
               २) मोदिष्ये 
            ३) भासयते   
संधि सोडवा
        १) पश्यैतां 
       २) नरकस्येदं
       ३) इदमुक्तं

GMM 20  दि 12-07-2023    प्रेक्षक - २
  श्लोक म्हणा
          १) अपर्याप्तं तदस्माकं ...
           २) अहंकारं बलं दर्पं … 
           ३) अहं वैश्वानरो भूत्वा …. 
समास ओळखा  
        १)  वैश्वानरः
       २) हुतावहः 
       ३) पावकः
विभक्ति सांगा  
            १) योनिषु
           २) ईश्वरः
           ३) क्षयाय
 एका ओळीत उत्तर 
       १) कर्णाला अस्त्रविद्या कुणी दिली
      २) द्रोणाचे दोन गुरु कोण
     ३) भीष्माला अस्त्रविद्या कुणी दिली 
शब्दार्थ सांगा  
            १) परमेश्वासः
           २) भीमाभिरक्षितम्
           ३) विमोक्षाय
संधि करा 
       १) भीम  अर्जुन
       २) प्राहुः अव्ययम्
       ३) दैव आसुर

GMM 20  दि 12-07-2023    गिरिजा अध्याय १- १ 
श्लोक  पूर्ण म्हणा
     १) अपर्याप्तं तदस्माकं….
     २) स घोषो धार्तराष्ट्राणां….
     ३) तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं...
 वचन सांगा
       १)  कुरुवृद्धः
       २) दिव्यौ
      ३) हृदयानि
एका ओळीत उत्तर सांगा
         १) पांडव अज्ञातवासात कुठे राहिले
         २) शकुनिला कोणी मारले 
         ३) पांडवांची पहिली राजधानी सांगा 
या शब्दाशी संलग्न पुरुष ओळखा
           १) निरीक्षे
           २) दह्यते
            ३) पश्य 
काळ  किंवा लकार सांगा 
             १)  काङ्क्षे
            २) उवाच
          ३) अवेक्षे
संधि सोडवा
        १)  यद्वा
       २) तान्ब्रवीमि
        ३) सेनयोरुभयो

GMM 20  दि 12-07-2023    गिरिजा अध्याय १-२ 
 तीन श्लोक सलग म्हणा
                    १) भवान्भीष्मश्च ….
                    २) एतान्न हन्तुमिच्छामि ...
समास ओळखा अध्याय १ 
        १) जनार्दनः
       २) कुलधर्माः
       ३) धर्मक्षेत्रः
विभक्ति सांगा अध्याय १ 
             १) पाण्डवाः
            २) शिष्येण
            ३) महीपते
एका ओळीत उत्तर सांगा
       १) भीमाला गदायुद्ध कोणी शिकवले
       २) युधिष्ठिराला कौन्तेय म्हणावे काय
       ३) सुभद्रा कोणाची बहीण होती ?
शब्दार्थ सांगा अध्याय १ 
            १)  त्यक्तजीविताः
           २) विनद्यौच्चैः
           ३) प्रदध्मतुः
संधि करा अध्याय १ 
        १)  उभयोः   + मध्ये
        २) सहसा  + एव
        ३) रथः + उत्तमम्

GMM 20 Rapid    
    १)  भीष्माचे नाव गांगेय का होते
    २)  नारदांबद्दल दोन वाक्ये सांगा
    ३) दुसऱ्याला न देता खातो त्याला  पापी का म्हटले 
अर्थ सांगा
  १)  संभवामि युगे युगे 
  २) कमळाच्या पानासारखे रहाणे  
  ३) कामाच्या रूपात शत्रू
       १) कस्य पुत्रः परीक्षितः 
      २) परधर्म भयावह का म्हटले
      ३) माणूस कोणामुळे प्रेरित होऊन   पाप करतो
    १) अर्जुनस्य धनुष्यस्य किं नाम
    २) गीतेतील कृष्णाची 3 नावे सांगा
    ३) उवाच या शब्दाचा अर्थ सांगा
        १) द्रौपदी कोणत्या देशाची होती
        २) पाच ज्ञानेंद्रिये कोणती
        ३)  आत्मा अविनाशी का आहे
 १) गीतेतील तीन अध्यायांची नावे सांगा
 २)  कर्म आणि अकर्म चा अर्थ काय 
 ३) चार वर्णाची रचना काय पद्धतीने  केली


गुरुवार, 11 मार्च 2021

संस्कृतमधील संख्यालेखन

 *_संस्कृतमधील संख्यालेखन_*

       नैसर्गिक संख्या दर्शविण्यासाठी एक, द्वि, त्रि.. दश, शत, इत्यादी शब्द संस्कृतमध्ये आहेत. पण जुने संस्कृत गणितग्रंथ पद्यात असल्यामुळे त्यासाठी संख्यात्मक शब्द कल्पकतेने तयार करणाऱ्या तार्किक चौकटी विकसित झाल्या. यामध्ये तीन पद्धती उल्लेखनीय आहेत. या सर्व पद्धतींत अंक उजवीकडून डावीकडे वाचले/ लिहिले जातात.

           आर्यभटांनी वर्णाक्षरे आणि अंक यांची सांगड घालून व स्थानिक किंमतीची जोड देऊन शोधलेल्या पद्धतीत क, च, ट, त, प गटांतील २५ अक्षरांना १ ते २५ आणि य ते ह या ८ अक्षरांना अनुक्रमे ३०, ४०, ५०..१०० अशा किंमती दिल्या. नऊ स्वरांचा उपयोग नऊ वर्ग/ अवर्ग स्थानांच्या स्थानिक किंमती दर्शविण्यासाठी केला. यामुळे कोणतीही संख्या वर्णाक्षरांनी लिहिता येऊ लागली. जसे की, मखि = २२५; कारण म = २५, ख = २, इ = १०२. म्हणून २००+२५ = २२५. मात्र या पद्धतीत काही शब्द उच्चारण्यास कठीण झाल्याने ती लोकप्रिय झाली नाही.

      कटपयादि या दुसऱ्या पद्धतीत स्वरांची तसेच न आणि ञ यांची किंमत शून्य घेतात. जोडाक्षरात फक्त शेवटचे व्यंजन गृहीत धरले जाते. क, ट प, य = १; ख, ठ, फ, र = २.. ङ्, ण, म, श = ५; च, त, ष = ६; छ, थ, स = ७; ज, द, ह = ८.. अशा किंमती येतात. यामुळे भवति = ६४४ किंवा राम = ५२ असे शब्द होतात. या पद्धतीत उच्चारण्यास सोपे अर्थपूर्ण शब्दसमूह संख्यांसाठी तयार करता येतात.

      याशिवाय संख्यांसाठी संकेतार्थी शब्द वापरण्याची पद्धतही लोकप्रिय झाली. उदाहरणार्थ, वेद चार आहेत म्हणून वेद = ४. अर्थातच संस्कृत भाषेचे सखोल ज्ञान असे सांकेतिक गणित शिकण्यासाठी जरूरी होते. यामुळे प्रचलित शब्दांचे पर्याय उपलब्ध झाल्याने छंदोबद्ध ग्रंथ मुखोद्गत करणे सोपे झाले. जसे की, वर्तुळाचा परीघ आणि व्यास यांच्या पाय या गुणोत्तराचे सूत्र ‘लीलावती’त असे आहे : *_‘‘व्यासे भनन्दाग्निहते विभक्ते खबाणसूर्यै: परिधि: स सूक्ष्म:।’’_*

येथे भ = २७ (नक्षत्रे), नन्द = ९ (नंद कुळातील राजे), अग्नि = ३ (यज्ञीय अग्नि). म्हणून भनन्दाग्नि = ३९२७ ही संख्या येते. ख = ० (आकाश), बाण = ५ (मदनाचे बाण), सूर्य = १२ (आदित्यदेवता) म्हणून खबाणसूर्य म्हणजे १२५०. त्यामुळे परीघ = व्यास गुणिले ३९२७ भागिले १२५०. यावरून पाय = ३९२७/१२५० = ३.१४१६!


– डॉ. मेधा लिमये  

मराठी विज्ञान परिषद,

संकेतस्थळ : www.mavipa.org

ईमेल : office@mavipamumbai.org

रविवार, 2 अगस्त 2020

गुरुसंस्था - गुरु व त्यांचे प्रकार

मंत्रशास्त्राकार जगन्नाथपुरीचे ब्रह्मीभूत पूज्य श्रीशंकराचार्य योगेश्वरानंदतीर्थ ह्यांचा हा मंत्रसाठा सिद्ध आहे ,

गुरु व त्यांचे प्रकार

भगवान् ‌ पतंजलींनीं सेश्वर सांरव्य मीमांसेंत " क्लेश कर्मविपाकाशयैर -परामृष्ठपुरुषविशेष ईश्वरः " अशी सगुण परमात्मतत्त्वाची व्यारव्या दिली आहे व ’ स सर्वेषां गुरुः कलेनानवच्छेदात् ‌ ’ व तोच आदिनारायण अप्रनष्ट कालपरंपरेनें सर्वांचा गुरु आहे . भगवान् ‌ गोपालकृष्णांर्नी धनंजयास गीता सांगतांना ’बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्युन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप । ’ असें सांगितलें आहे . श्री आदिनारायणांचा श्रीकृष्ण अवतार हा पूर्णांशाचा आहे , अशी उक्ति आहे . आदिनारायणरूपी श्रीमहाविष्णूंनीं श्रीब्रह्यदेवांस वेद आपल्या ह्लदयांतील परावाणीनें सांगितले . पहिला गुरुशिष्यसंबंध असा आहे . तसेंच आगम मंत्र श्रीशंकरांनीं पार्वतीला सांगितले . म्हणजे ही मंत्रदीक्षा प्रत्यक्ष होती . तसेंच ब्रह्यदेवांनीं नारदांना दीक्षा दिली . ही दीक्षा प्रत्यक्ष म्हणजे श्रवणेंद्रियानें प्राप्त झालेली . गुरुसंप्रदायाची सुरुवात अशी झालेली आहे .

’ गृणाति उपदिशति धर्मः गिरति ( नाशयति ) अज्ञानं : यद्वा गीर्यते स्तूयते देवादिभिः , इति गुरुः। ’

अविद्या ह्रदयग्रंथिबन्धमोक्षो यतो भवेत्‌ ।

तमेव गुरुरित्याहुर्गुरुशब्देन योगिनः ॥

भगवान् ‌ श्रीशंकराचार्य

तंत्रशास्त्रांत गकार म्हणजे सिद्धिदाता , रेफाचा अर्थ पापनाशक आणि उकार म्हणजे विष्णु , म्हणजे सिद्धि देणारा , पापांचा नाश करणारा व मंगलकारक असा जो पुरुष तोच गुरु होय . अथवा गकार म्हणजे ज्ञान , रेफाचा अर्थ तत्त्व प्रकाशक व उकाराचा अर्थ शिवतादात्म्य करणारा विष्णु असा जो पुरुष तो ग्रुरु होय होय . गुरुचरित्र अध्याय ३६ यांत ’ गुरु ’ च्या अशाचा व्यारव्या दिलेल्या आहेत . कूर्मपुराणांत दहा प्रकारच्या गुरूंचें वर्णन आहे --

उपाध्यायः पिता माता जेष्टो भ्राता महीपतिः ।

मातुलः श्वशुरश्चैव मातामह ...पितामहौ ॥

वर्णज्येष्ठः पितृव्यश्च सर्वे ते गुरवः स्मृताः ।

उपेत्य अधीयते म्हणजे अध्ययन करवितो तो उपाध्याय होय .

एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः

योऽध्यापयति वृत्यर्थं उपाध्यायः स उच्यते

आपल्या जीविकावृत्तीकरितां वेद आणि वेदाङ्रे पढून दुसर्‍यासही पढवितो तो उपाध्याय गुरु होय व उपनिषदांसह सर्व वेदादिकांचा जो पाठ देतो तो आचार्य होय .

’ यरुमात् ‌ पुरुषादयं माणवको धर्मानाचिनोति शिक्षते स आचार्यः ’ आणि जो --

स्वयमाचरते यस्मादाचारं स्थापयत्यपि ।

अचिनोति च शास्त्राणि आचार्यस्तेन सोच्यते ॥

मुनींच्या संघाचा अधिपति व संघांतील मुनींस जो प्रमादाबद्दल प्रायश्चित्त देतो तो आचार्य होय . महर्षि वसिष्ठांनीं म्हटलें आहे कीं --

उपाध्यायान् ‌ दशाचार्या आचार्याणां शतं पिता

पितुर्दशगुणं माता गौरवेणातिरिच्यते

उपाध्यायापेक्षां दसपट आचार्य व आचार्यापेक्षां पिता शतपट व पित्यापेक्षां दसपट माता श्रेष्ठ गुरु आहे . तथापि आपस्तंब धर्मसूत्रांत --

शरीरमेव मातापितरौ जनयतां ।

आचार्यस्तु सर्वं पुरुषार्थक्षमं रूपं जनयति ॥

मातापिता शरीरच देतात ; परंतु आचार्य पुरुषार्थ -साधन -सामग्री तयार करितो , म्हणून तो वरिष्ठ होय . ’आचार्यः श्रेष्टो गुरूणां ’ (गौ . धर्मसूत्र )

’ प्र तव्दोचेदमृतं नु विद्वान् ‌ । गंधर्वाधाम बिभृतं गुहासत् ‌ ।

त्रीणि पदानि विहिता गुहास्य यस्तानि वेद स पितुः पितासत् ‌ ॥

वेदविद्या धारण करून त्या विद्येचें प्रवचन करितो , जो ब्रह्यगुहेमध्यें आनंदमग्न होऊन राहिला आहे , व त्या गुहेंतील तीन पदें जो जाणतो तो पित्याचाही गुरु आहे . ब्रह्माचीं तीन पदें म्हणजे जागृत , स्वप्न , सुषुप्ति , उत्पत्ति , स्थिति , लय , अथबा ’तत् ‍, त्वं , असि ’ अशा त्रिपदांना जो जाणतो तो ब्रह्यविद्वरिष्ठ गुरु ’ होय .

गुरूनें शिष्याचे समोर प्राणायाम करून शिष्याची समाधि लावणें ही वेधदीक्षाच होय . अशी दीक्षा देणारे गुरु खरे गुरु होत . ग्रहणांत अमुक मंत्र सांगितल्याबरोबर दुसरे दिवसापासूनच त्या मंत्रोदित सिद्धि शिष्यास प्राप्त होणें ही शब्ददीक्षा . अशा प्रकारच्या गुरूची आवश्यकता मंत्रशास्त्रांतील मंत्रांच्या दीक्षेस जरूर आहे . ’ मम ह्रदये ह्रदयं ते अस्तु , मम चित्तमान्वेहि , मम वचमेकमना जुषस्व बृहस्पतिस्त्वा नियुनवतु मह्यं ,’ मंत्रदीक्षा देणारे गुरु , प्रकाशात्मक मंत्राक्षरांचा उपदेश करितांना ’मम व्रते ह्रदयं दधामि ’ माझ्याप्रमाणें तुझ्या ठिकाणीं मंत्राक्षरें प्रकाशमय प्रकट होवोत , असें म्हणून शिष्यांस मंत्राक्षरांचा उपदेश करितात , तेव्हां शिष्यांस तीं मंत्राक्षरें प्रकाशमय दिसूं लागतात . वरील दीक्षांच्या प्रकारांपैकीं हाही एक प्रकार आहे .

वरील प्रकारचे गुरु हल्लीं क्कचितच उपलब्ध होतात , म्हणून साधकानें निराश होण्याचें कारण नाहीं , यासंबंधीं असें वचन आहे कीं --’ यावन्नानुग्रहः साक्षात् ‌ जायते परमेश्वरात् ‌ तावन्न सद्‌गुरुः सेव्यः सच्छिष्यश्चापि नो भवेत् ‌ ’ मंत्रसिद्धि सगुण परमेश्वराची भक्ति केल्यानेंही होते , व अशी परमेश्वराची भक्ति म्हणजे परमेश्वराच्या अवतारविमूतींची भक्ति होय . पंचोपास्ना म्हणजे पंच देवोपासना श्रीमदाद्यशंकराचार्यांनीं प्रस्थापित केली . हीं पंचदैवतें म्हणजे गणपती , शिव , हरि , भास्कर आणि जगदंबा अशीं होत . साधकाच्या आवडीप्रमाणें ह्या पंचदेवतांचे मंत्र ग्रहण करून पुरश्चरण केलें , तर ह्या मंत्रसिद्धीमुळें देवतादर्शन व देवताप्रसाद होतो . व त्या प्रसादानें अष्टमहासिद्धि प्राप्त होतात . देवता प्रसन्न होऊनच साधकाची इच्छा पूर्ण करितात , असा अनुभव आहे . म्हणून श्रीमदाचार्य , मध्वाचार्य , वल्लभाचार्य , राधापंथी स्वामी , नारायणपंथी , श्रीसमर्थ सांप्रदाय , चैतन्य सांप्रदाय , नाथ सांप्रदाय , वारकरी सांप्रदाय या सांप्रदायांपैकीं परंपराशुद्ध गुरूपासून मंत्र घेतला तरी कार्यसिद्धि होते असें आहे .

पिश्चिला तंत्रांत असें लिहिलें आहे कीं , गुरु दोन प्रकारचे आहेत . एक दीक्षागुरु व दुसरा शिक्षागुरु , मंत्राची दीक्षा देणारी ते दीक्षागुरु , हे गुरु शुद्ध पूर्वपरंपरेनें प्राप्त झालेल्या मंत्राची दीक्षा देतात . शिक्षागुरु समाधि , ध्यान , धारणा , जप , स्तव , कवच , पुरश्चरण , महापुरश्चरण आणि साधनेचे निरनिराळे विधि व योग ह्या सर्व गोष्टी शिकवितात , वस्तुतः इष्ट देवतेचा मंत्र ज्याचेपासून प्राप्त झाला त्याची महती जास्त आहे . कुलागमांत गुरूंचे सहा प्रकार सांगितले आहेत . प्रेरक , सूचक , बाचक , दर्शक , बोधक आणि शिक्षक असे ते सहा भेद आहेत . प्रेरक गुरु म्हणजे दीक्षा व साधना यांचें महत्त्व वर्णन करून साधकाच्या मनांत मंत्रग्रहणाबद्दल दीक्षा घेण्याची प्रेरणा करितो तो होय , व सूचकगुरु म्हणजे साधना व दीक्षा यांचे निरनिराळे प्रकार वर्णन करितो तो होय . वाचक गुरु म्हणजे साधनांचें वर्णन करतो तो होय . कोणती साधना व दीक्षा साधकाला योग्य आहे हें सांगतो तो दर्शक गुरु होय . शिक्षक गुरु म्हणजे योग्य दीक्षा व साधना यांच्याबद्दल तात्त्विक दृष्टीनें साधकाच्या सदसद्विवेकबुद्धीला विविध प्रमाणांनीं पटेल , अशा रीतीनें स्पष्ट करून सांगतो , तो बोधक गुरु होय , ह्या गुरुषट्‌कांपैकीं शेवटील बोधक गुरु वरिष्ठ आहे . कारण बुद्धीला पटल्याखेरीज मागील पांच प्रकारच्या गुरुंचें कार्य सफल होणार नाहीं . भृगुऋषी यांनीं सर्व ग्रंथभांडारांतील ज्ञान संपादन केल्यावर ते आपले पिते वरुण ऋषी यांचेकडे गेले व "अघीहि , भगवन्‌ब्रह्येति " अशी त्यांनीं पित्याला पृच्छा केली , तेव्हां " अन्नं ब्रह्येति व्यजानीयात् ‌ " म्हणजे अन्नमयकोश हेंच ब्रह्य आहे , याचा विचार कर , व तें पटल्याखेरीज येऊं नको , असें , त्यांनीं सांगितलें . लिहिण्याचा हेतु हा कीं साधना व दीक्षा यांचा तात्त्विक गूढ अर्थ समजल्याखेरीज व बुद्धीला पटल्याखेरीज साधना व दीक्षा यांचें वर्णन ऐकून कांहीं उपयोग होणार नाहीं . म्हणून पिश्चिला तंत्रांत वर्णन केलें आहे कीं , साधनाशास्त्र सर्वस्वी गुरुदेवावरच अवलंबून आहे .

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

संस्कृत भाषा अतुलनीय

संस्कृत भाषा सभी अर्थों में अतुलनीय है।

अंग्रेजी में A QUICK BROWN FOX JUMPS OVER THE LAZY DOG एक प्रसिद्ध वाक्य है जिसका बार -बार अभ्यास टाइपिंग सीखने वाले करते थे।

अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर उसमें समाहित हैं. किन्तु कुछ कमियाँ भी हैं या यों कहिये कि कुछ कलाकारियाँ किसी अंग्रेजी वाक्य से हो नहीं सकतीं।

1) अंग्रेजी में 26 अक्षर हैं और यहाँ जबरन 33 का उपयोग करना पड़ा है।

 चार O हैं और A,E,U,R की  दो-दो पुनरावृत्तियाँ हैं।

2) अक्षरों का ABCD.. यह स्थापित क्रम नहीं दिख रहा है। सारे अक्षर तर्कहीन बेतुके ढंग से अस्तव्यस्त हैं।

अब संस्कृत में चमत्कार देखिये!

क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोटौठीडढण:।
तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।

अर्थात्-

पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनेवाला कौन है?

 राजा मय जिसे शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

आप देख सकते हैं कि संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस छोटे से श्लोक में आ जाते हैं।

 इतना ही नहीं, उनका क्रम भी यथायोग्य है।

एक ही अक्षर का अद्भुत अर्थ विस्तार.

माघ कवि ने "शिशुपालवधम्" महाकाव्य में केवल "भ" और "र", दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है-

भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।
भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।

अर्थात्

धरा को भी वजन लगे ऐसे वजनदार वाद्य यंत्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले निडर हाथी ने अपने दुश्मन हाथी पर हमला किया।

किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल "न" व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया गया है और गजब का काव्य कौशल प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने कहा है-

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्।।

अर्थ-

जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है।

 ऐसे ही जो अपने से दुर्बल को घायल करता है वह भी मनुष्य नहीं हैः

 घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।

अब हम एक ऐसा उदाहरण देखेंगे जिसमे महायमक अलंकार का प्रयोग किया गया है।

 इस श्लोक में चार पद हैं, बिलकुल एक जैसे, किन्तु सबके अर्थ अलग-अलग हैं।

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः ।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः ॥

अर्थात्

अर्जुन के असंख्य बाण सर्वत्र व्याप्त हो गये जिसने शंकर के बाण खण्डित कर दिये।

इस प्रकार अर्जुन के रण कौशल को देखकर दानवों को मारने वाले शंकर के गण आश्चर्य में पड़ गये।

 शंकर और तपस्वी अर्जुन के युद्ध को देखने के लिए शंकर के भक्त आकाश में आ पहुँचे।

संस्कृत की विशेषता है कि संधि की सहायता से इसमें कितने भी लम्बे शब्द बनाये जा सकते हैं। ऐसा ही एक शब्द है जिसमें योजक की सहायता से अलग &अलग शब्दों को जोड़कर 431 अक्षरों का एक ही शब्द बनाया गया है। यह न केवल संस्कृत अपितु किसी भी साहित्य का सबसे लम्बा शब्द है।

संस्कृत में यह श्लोक पाई (π) का मान दशमलव के 31 स्थानों तक शुद्ध कर देता है।

गोपीभाग्यमधुव्रात-श्रुग्ङिशोदधिसन्धिग।
खलजीवितखाताव गलहालारसंधर।।

pi = 3.1415926535897932384626433832792
13/14

श्रृंखला समाप्त करने से पहले भगवान
 श्रीकृष्ण की महिमा का गान करने वाला एक श्लोक जिसकी रचना भी एक ही अक्षर से की गयी है।

दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः॥

यहाँ पर मैंने बहुत ही कम उदाहरण लिये हैं किन्तु ऐसे और इनसे भी कहीं प्रभावशाली उल्लेख संस्कृत साहित्य में असंख्य बार आते हैंः

 कभी इस बहस में न पड़ें कि संस्कृत अमुक भाषा जैसा कर सकती है या नहीं।

 बस यह जान लें कि जो संस्कृत कर सकती है, वह कहीं किसी और भाषा में नहीं हो सकता।


अपने देश, भाषा तथा संस्कृति पर विश्वास रखिये। भारतीय संस्कृति जड़ है जिससे बाकी सभी शाखायें निकली हैं।

 उन शाखाओं को ऊपर से देखने पर जड़ें नहीं दिखतीं।

कष्ट यह है कि हममें से भी अधिकांशतः दूसरी आधुनिक संस्कृतियों के प्रभाव में आकर जड़ों को नहीं देख रहे हैं।

संस्कृत से अधिक स्पष्ट और कोई भाषा न होने के कारण अमेरिका की नासा ने अपने कंप्यूटरों की भाषा संस्कृत ही रखी है।

इसमें किसी भ्रांति की कोई संभावना नहीं है।

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मंगलवार, 21 जुलाई 2020

वायुपुराणवर्णित ३३ कल्प


वराह कल्प कालमें वायुपुराण कहा गया।

पहले मुनि ने कल्प निरूपण करते हुए कहा कि दो हजार आठ सौ करोड़ तथा बासठ करोड़ रात्तर नियुत कल्पार्द्ध की वर्ष संख्या कही गई है। इसका पूर्ण भाग वर्ष परिमाण कहा गया है, एक सौ अठहत्तर करोड़ दो लाख नब्बे नियुत के मानुष परिणाम से वैवस्वतः मन्वन्तर होता है।
ब्रह्मा के युग और वर्ष के बारे में बताते हुए वायु ने कहा कि ब्रह्मा का वर्ष एक हजार युग का होता है और आठ हजार वर्षों का एक ब्रह्मयुग, एक हजार ब्रह्मयुगोंका एक सवन और दो हजार सवनोंको ब्रह्माका त्रिवृत्त होता है।
७वाँ -- पद्मकल्प
सृष्टि से पहले भव कल्प हुआ, दूसरा भू, फिर तप:,
चौथा, पांचवां, छठा, सातवां, आठवां, नवां, दसवां, ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां, चौदहवां, कल्प विस्तार क्रमशः भव्, रम्भा, ऋतु, वह्मि, हण्यवाहन, सावित्री, भुवः, उशिक, कुशिक, गान्धार, वृषभ और षड़ज नाम से हुए।--some confusion as there are 12 names for 11 kalpa (4th to 14th) . What about 15 th and 16 th ???
सत्रहवां कल्प मार्जालिय,
अठारहवां मध्यम,
उन्नीसवां वैराजक हुआ। इसमें ब्रह्मा के पुत्र वैराज मुनि हुए। इनके दधीचि (= वैराजक) नाम का धर्मात्मा पुत्र हुआ।
बीसवां कल्प निषाद कल्प हुआ। प्रजापति ने उस निषाद को देखकर सृष्टि कर्म से हाथ रोक लिया। निषाद भी तपस्या करने लगा। तब इक्कीसवें पंचम कल्प में ब्रह्मा के यहां प्राण, अपान, समान, उदान तथा ध्यान नामक पांच मानस पुत्र हुए। इन पांचों के पंचम गान के कारण ही इस कल्प का नाम पंचम कल्प पड़ा।
बाईसवें कल्प का नाम मेघवाहन हुआ। इसमें विष्णु ने मेघरूप महेश्वर को दिव्य सहस्र वर्ष तक धारण किया।
तेईसवां कल्प चिन्तक कल्प हुआ। इसमें प्रजापति पुत्रीकी चिन्तक के साथ चिति नाम की पुत्री हुई।
चौबीसवां, आकूति कल्प हुआ। इसमें आकूत और आकूति मिथुन उत्पन्न हुए।
पच्चीसवां विज्ञाति कल्प हुआ। इसमें विज्ञाति के साथ विज्ञात जुड़वा उत्पन्न हुए। सृष्टि की इच्छा से ब्रह्मा को शीघ्र ही सब कुछ ज्ञात हो गया।
छब्बीसवें कल्प का नाम मन हुआ। इसमें शंकरी देवी ने एक मिथुन उत्पन्न किया। यह कल्प उस समय हुआ जब ब्रह्मा प्रजा की सम्भावना की कल्पना कर रहे थे।
सत्ताईसवां कल्प भाव कहलाता है। परमेष्ठी ब्रह्मा परमात्मा का ध्यान कर रहे थे कि उनका ज्योति मण्डल अग्नि रूप में पृथ्वी लोक और देवलोक में व्याप्त होकर प्रदीप्त हो उठा। एक हजार वर्ष बाद यह मण्डल सूर्य मण्डल में परिणित हुआ। ब्रह्मा ने उसको देखा, उससे समस्त योग और मन्त्र उत्पन्न हुए। इसलिए उस कल्प का नाम दर्श पड़ा।
अठाईसवां वृद्ध कल्प कहलाया। सृष्टि की कामना करने वाले ब्रह्मा के अन्तःकरण से साम उद्भूत हुए।
उनतीसवें कल्प में श्वेतलोहित हुआ। इससे एक परम तेजस्वी कुमार उत्पन्न हुआ, ब्रह्मा ने उसे महेश्वर समझा।
तीसवां रक्त कल्प हुआ, जिसमें महातेजस्वी रक्त ने रक्त वर्ण प्राप्त किया। ध्यान योग से ब्रह्मा ने जाना कि ये स्वयं विश्वेश्वर हैं। उनकी आराधना की और उस ब्रह्मस्वरूप का चिंतन करने लगे। महातपस्वी ने ब्रह्मा से कहा कि हे पितामह जिस लिए तुमने पुत्र कामना से मेरा ध्यान किया है, तुम प्रत्येक कल्प में परम ध्यान के द्वारा मुझे भली-भांति जानोगे। इसके पश्चात उस महादेव से चार महात्मा कुमार उत्पन्न हुए। उन्होंने वामदेव सम्बन्धी ज्ञान का अभ्यास किया और पुनः उसी रुद्र महादेव में विलीन हो गए।
इकत्तीसवां कल्प पीतवासा कहलाता है। इसमें जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह पीत चन्दन से युक्त पीत यज्ञोपवीत धारी था। ध्यान मग्न ब्रह्मा ने उस महेश्वर के मुख से उत्पन्न एक विचित्र गाय को देखा। भविष्य में इसी का नाम रुद्राणी हुआ। पुत्र की इच्छा वाले ध्यान प्रण ब्रह्मा को वह महेश्वरी गाय प्रदान कर दी।
इसके पश्चात् बत्तीसवां सित नामका कल्प हुआ। उस समय दिव्य सहस्र वर्ष तक जगत् स्कार्णवत रूप में था। ब्रह्मा दुखी होकर सृष्टि के लिए चिन्तन करने लगे, तब उनका वर्ण काला हो गया। इसी से कृष्ण वर्ण युवक उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उसका ध्यान किया, जिसके प्रभाव से महात्मा स्वरूप चार युवक उत्पन्न हुए। योग सम्पन्न उन कुमारों ने मन ही मन शिव का ध्यान करते हुए विश्वेश्वर के निर्मल और निर्गुण स्थान में प्रवेश किया।
तैंत्तीसवां विश्व रूप नाम कल्प हुआ। इसमें महानाद करने वाली विश्व रूपा सरस्वती उत्पन्न हुई। तब ब्रह्मा ने प्रणत होकर महेश्वर की स्तुति की और कहा-आपका जो विश्वगामी, विश्वेश्वर, विश्व रूप है, उसे हम जानने की इच्छा रखते हैं। यह परमेश्वर कौन है? यह भगवती कौन है? जो चार पैर, चार मुख, चार सींग, चार दांत, चार स्तन, चार हाथ, चार आंख वाली विश्व रूपा है? इसका नाम क्या है? इसकी आत्मा और रूप कैसे हैं? इसका पराक्रम और कर्म कैसे हैं? महेश्वर ने ब्रह्मा से यह सुनकर कहा- यह जो कल्प बीत रहा है, विश्व रूप कल्प है। भवआदि देवगण इस कल्प के छत्तीसवें गण हैं। जब से आपने इस ब्रह्मपद को प्राप्त किया है, तब से यह तैैंतीसवां कल्प चल रहा है।
शिवके अष्ट नाम यों हैं - रुद्र भव शर्व पशुपति ईशान भीम उग्र महादेव

























बुधवार, 1 जुलाई 2020

निर्वाण-षटकम् देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम्--चिदानन्दरूपं शिवोहम् शिवोहम्

जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा ।
बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है… 
यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम् -

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न मत्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।

न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥१॥


विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया

विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।

तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥२॥


पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः

परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः ।

मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥३॥


जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता

न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।

तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥४॥


परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया

मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि ।

इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता

निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥५॥


श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा

निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः ।

तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं

जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥६॥


चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं

भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥७॥


न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥


नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः

किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः ।

श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे

धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥९॥


आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं

करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।

नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः

क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥१०॥


जगदम्ब विचित्रमत्र किं

परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।

अपराधपरम्परापरं

न हि माता समुपेक्षते सुतम् ॥११॥


मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥१२॥

इति देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम्