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शनिवार, 6 जून 2020

तीन ऋण - मीमांसा दर्शन

तीन ऋण
-- शिवेंद्रकी पोस्टसे



१. मीमांसा-

मीमांसा दर्शन के अनुसार मनुष्य ३ ऋणों के साथ जन्म लेता है।

 यज्ञ द्वारा देव ऋण से, ब्रह्मचर्य द्वारा ऋषि ऋण से, प्रजा (सन्तान) द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होता है।

अतः यज्ञ करने वाला, ब्रह्मचारी, प्रजावान् अनृण होता है।

 जायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवान् जायते,

यज्ञेन देवेभ्यः ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यः प्रजया पितृभ्य इति।

स वै तर्हि अनृणो भवति यदा यज्वा, ब्रह्मचारी, प्रजावानिति

(मीमांसा सूत्र, ६/२/३१ पर शाबर भाष्य)

२. शतपथ ब्राह्मण-

(१) एक स्थान पर ४ ऋण तथा उनसे मुक्ति के विषय में कहा है - देव, ऋषि, पितर, मनुष्य ऋण।

ऋणं ह वै जायते यो ऽस्ति।

 स जायमान एव देवेभ्य ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः॥१॥

स यदेव यजेत-तेन देवेभ्य ऋणं जायते।

 तद्ध्येभ्य एतत् करोति यदेनान् यजते यदेभ्यो जुहोति॥२॥

अथ यदेनानुब्रवीत।

तेन ऋषिभ्य ऋणं जायते तद्ध्येभ्य एतत् करोति-ऋषीणां निधिगोप इति ह्यनूचानमाहुः॥३॥

अथ यदेव प्रजामिच्छेत।

 तेन पितृभ्य ऋणं जायते तद्ध्येभ्य एतत् करोति यदेषां सन्तता अव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति॥४॥

अथ यदेव वासयेत।

 तेन मनुष्येभ्य ऋणं जायते तद्ध्येभ्य एतत् करोति यदेनान्वासयते यदेभ्यो अशनं ददाति स यः तानि सर्वाणि करोति स कृतकर्मा तस्य सर्वमाप्तं सर्वं जितम्॥५॥ 

(शतपथ ब्राह्मण, १/७/२/१)

(= जो कोई मनुष्य है, वह उत्पन्न होते ही देवों, ऋषियों, पितरों मनुष्यों का ऋणी हो जाता है॥।१॥

उसे यज्ञ करना चाहिये क्यों कि देवों का ऋणी होता है, इसलिये ऐसा करता है कि उनके लिये यज्ञ करता है, उनके लिये आहुति देता है॥२॥

 उसे वेद पढ़ना चाहिये क्योंकि ऋषियों का ऋणी होता है, इसलिये ऐसा करता है।

जो वेद पढ़ता है, उसे ऋषियों के कोष का रक्षक कहते हैं॥३॥

 उसे सन्तान की भी रक्षा करनी चाहिये क्योंकि पितरों का ऋणी होता है, इसलिये ऐसा करता है
जिससे उसके वंश की परम्परा चलती रहे॥४॥

 उसे लोगों का सत्कार करना चाहिये क्योंकि मनुष्यों का ऋणी होता है, इसलिये ऐसा करता है कि उनको बसाता है, भोजन देता है, उसके लिये सब कुछ करता है।

 इससे वह कर्तव्य पूरा करता है।

इससे सब मिलता है और वह विजयी होता है॥५॥)


(२) अन्य स्थान पर ५ महायज्ञों द्वारा ५ ऋणों से मुक्त होना लिखा है-

भूतयज्ञ (अन्य प्राणियों का ऋण), देव यज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, ब्रह्म (ऋषि) यज्ञ।

पञ्चैव महायज्ञाः।

 तान्येव महा सत्राणि भूतयज्ञो मनुष्य यज्ञः पितृयज्ञो देवयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति॥१॥

अहररः भूतेभ्यो बलिं हरे। तथैतं भूतयज्ञं समाप्नोति।

अहरहः दद्यादोदपात्रात्।

 तथैतं मनुष्य-यज्ञं समाप्नोति अहरहः स्वधा कुर्यादोदपात्रात्।

तथैव पितृ यज्ञं समाप्नोति।

अहरहः स्वाहा कुर्यादा काष्ठात्।

 तथैव देवयज्ञं समाप्नोति॥२॥

अथ ब्रह्मयज्ञः।

स्वाध्यायो वै ब्रह्मयज्ञस्तस्य वा एतस्य ब्रह्मयज्ञस्य-वागेव जुःऊः।

मन उपभृत्।

चक्षुर्ध्रुवा। मेधास्रुवः। सत्यमवभृथः। स्वर्गो लोक उदयनम्।

यावन्तं ह वा इमां पृथिवी वित्तेन पूर्णां ददत् लोकं जयति।

त्रिस्तावन्तं जयति-भूयांसं चाक्षय्यम्, य एवंविद्वान् अहरह स्वाध्यायमधीते।

तस्मात् स्वाध्यायो अध्येतव्यः॥३॥

पय आहुतयो हवा एता देवानाम् यदृचः।

 स य एव विद्वान् ऋचो अहरहः स्वाध्यायमधीते पय आहुतिभिरेवतद् देवांस्तर्पयति।

त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति।

 योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिः।

 घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन् स्वधा अभिवहन्ति॥४॥

(शतपथ ब्राह्मण, ११/५/६)

(= पाँच महायज्ञ ही महा सत्र हैं। भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्म यज्ञ॥१॥

 प्रतिदिन प्राणियों को भोजन देना भूत यज्ञ है।

 प्रतिदिन मनुष्यों को जलपात्र देना मनुष्य यज्ञ है।

प्रतिदिन स्वधा करे जल पात्र तक-यह पितृयज्ञ है। प्रतिदिन स्वाहा करे काष्ठ से-यह देवयज्ञ है॥२॥

अब ब्रह्मयज्ञ। स्वाध्याय ही ब्रह्म यज्ञ है।

 इस ब्रह्मयज्ञ की जुहू वाणी है। मन उपभृत है। चक्षु ध्रुवा है, मघा स्रुवा, सत्य अवभृथ स्नान है।

 स्वर्ग लोक इसका अन्तिम उद्देश्य है। इस पृथ्वी को धन से भर कर जीतने के लिये जितना धन चाहिए उससे ३ गुणा या अधिक वह अक्षय लोक को वह प्राप्त करता है, जो स्वाधाय करता है।

अतः स्वाध्याय अवश्य करे॥३॥

ऋचाएँ देवों के लिये दूध की आहुति हैं। जो इस रहस्य को समझ कर स्वाध्याय करता है, वह दूध की आहुति से देवों को तृप्त करता है।

 वे तृप्त हो कर इसे योगक्षेम, प्राण, वीर्य, सर्वात्मना (सब प्रकार से), पुण्य, सम्पत्ति से तृप्त करते हैं।

पितरों के लिये घी और मधु की नदियां बहती हैं, स्वधा रूप में॥४॥

३. मनुस्मृति के ३ ऋण-

 ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।

अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः॥

 (मनुस्मृति, ६/३५)

= तीन ऋणों से मुक्त हो कर ही मन को मोक्ष मार्ग पर लगाना चाहिये।

 बिना ऋणमुक्त हुए मोक्ष मार्ग पर चलने से अधोगति होती है।

यही गरुड़ पुराण में भी है-

ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य त्यक्त्वा भार्य्याधनादिकम्।

एकाकी यस्तु विचरेदुदासीनः स मौक्षिकः॥

(गरुड़ पुराण, १/४९/१०)

(= जो ३ ऋणों से मुक्त हो कर भार्या, धन आदि छोड़ कर अकेला उदासीन हो कर विचरण करता है, उसे ही मोक्ष मिलता है।)

अग्नि पुराण में ४ ऋणों का उल्लेख है-

 मा मे ऋणोऽस्तु दैवत्यो भौतः पैत्रोऽथ मानुषः (अग्नि पुराण, २११/११)

(= मुझे देव, भूत, पितृ तथा मनुष्य ऋण नहीं हो।)

४. ऋणानुबन्ध-

इस जन्म में ऋण मुक्ति नहीं हो, तो अगले जन्म में ऋण देने वाला पुत्र रूप में जन्म ले कर या अन्य प्रकार से उसे वापस लेता है।

ऋण सम्बन्धिनं पुत्रं प्रवक्ष्यामि तवाग्रतः।

 ऋणं यस्य गृहीत्वायः प्रयाति मरणं किल॥१॥

अर्थदाता सुतो भूत्वा भ्राता चाथ पिता प्रिया।

 मित्ररूपेण वर्त्तेत अतिदुष्टः सदैव सः॥२॥

(पद्म पुराण, २/१२/)

( = पहले ऋण-सम्बन्धी पुत्र के विषय में कहता हूँ। जो ऋण ले कर मर जाता है, उसके पुत्र, भ्राता, प्रिया आदि रूप में अर्थ देने वाला जन्म लेता है तथा मित्र रूप से वह अति दुष्टता करता है।)

५. पञ्च महायज्ञ-

५ ऋणों से मुक्ति के लिये पञ्च महायज्ञ होते हैं।

मातुर्वा भृगुजश्रेष्ठ श्रौतं वैतानिकाग्निषु।
 देवतानां पितॄणां च ऋषीणां च तथा नरः॥२॥

ऋणवाञ्जायते यस्मात्तन्मोक्षे प्रयतेत्सदा।

 देवानामनृणो जन्तुर्यज्ञैर्भवति मानद॥३॥

स्वल्पवित्तश्च पूजाभिरुपवासैर्व्रतैस्तथा।

श्राद्धेन पूजया चैव पितॄणामनृणो भवेत्॥४॥

ऋषीणां ब्रह्मचर्येण श्रुतेन तपसा तथा।

 हुतं चैवाहुतं चैव निर्वाप्यं प्रहुतं तथा॥५॥

प्राशितं च महाभाग पञ्चयज्ञान्न हापयेत्।

 हुतमग्नौ विजानीयादहुतं बलिकर्म यत्॥६॥

पिण्डनिर्वापणं राम निर्वाप्यं परिकीर्तितम्।

 प्रहुतं च यथा यज्ञं पितृयज्ञं तथैव च॥७॥

प्राशनं च तथा प्रोक्तं यद्भुक्तं तदनन्तरम्।

 पञ्चयज्ञान्सदा कुर्याद् गृही पापापनुत्तये॥८॥

देवयज्ञं भूतयज्ञं पितृयज्ञं तथैव च।
मानुष्यं ऋषि यज्ञं च कुर्यान्नित्यमतन्द्रितः॥९॥

देवयज्ञं हुतं विद्याद्भूतयज्ञं बलिक्रिया।

 पितृयज्ञं तथा पिण्डैर्ऋषि यज्ञं च भार्गव॥१०॥

स्वाध्यायसेवा विज्ञेया तथैवातिथि पूजनम्।

 मनुष्य यज्ञो विज्ञेयः पञ्चयज्ञान्न हापयेत्॥११॥

(विष्णु धर्मोत्तर पुराण, २/९५)

 (पुष्कर द्वारा भार्गव परशुराम को)-श्रौत या वैतानिक अग्नि द्वारा मनुष्य माता-पिता, देवता, पितर तथा ऋषियों का ऋणी हो जाता है, अतः मोक्ष के लिये इनसे मुक्त होने का सदा प्रयत्न करना चाहिये।

यज्ञ द्वारा मनुष्य देव ऋण से मुक्त होता है।

 पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए कम वित्त से भी पूजा, उपवास, व्रत, श्राद्ध पूजा करना चाहिये।

ऋषि ऋण से मुक्त होने के लिए ब्रह्मचर्य पालन, श्रुति अध्ययन, तप, हुत, अहुत, प्रहुत या प्राशित द्वारा पञ्चयज्ञ नही छोड़े।

अग्नि में समर्पण हुत है, बलिकर्म अहुत है।

 पितर के लिए पिण्ड दान प्रहुत है। यज्ञ तथा पितृयज्ञ प्रहुत है।

 उसके बाद भोग करना प्राशित है।

गृहस्थ व्यक्ति पञ्च (महा) यज्ञ द्वारा सभी पापों से मुक्त होता है।

 बिना तन्द्रा (आलस्य) के देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्य यज्ञ तथा ऋषि यज्ञ को दैनिक करना चाहिये।

 इन पञ्च (महा) यज्ञों को कभी नहीं छोड़े-देव यज्ञ में आहुति, भूत यज्ञ के लिये बलि-कर्म, पिण्ड द्वारा पितृ यज्ञ, स्वाद्याय और विद्या द्वारा ऋषि यज्ञ, सेवा और अतिथि पूजन द्वारा मनुष्य यज्ञ।


६. महाभारत-(१) एक स्थान पर ४ ऋण लिखे हैं-

(पाण्डुरुवाच) ऋणैश्चतुर्भिः संयुक्ता जायन्ते मानवा भुवि॥१७॥

पितृदेवर्षिमनुजैर्देयं तेभ्यश्च धर्मतः।

एतानि तु यथाकालं यो नबुध्यति मानवः॥१८॥


न तस्य लोकाः सनीति धर्मविद्भिः प्रतिष्ठितम्।

 यज्ञैस्तु देवान् प्रीणाति स्वाध्याय तपसा मुनीन्॥१९॥

पुत्रैः श्राद्धैः पितॄंश्चापि आनृशंस्येन मानवान्।

 ऋषि-देव-मनुष्याणां परिमुक्तोऽस्मि धर्मतः॥२०॥
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय, ११९)

 (पाण्डु ने कहा)...

 संसार में मनुष्य ४ प्रकार के ऋण के साथ जन्म लेते हैं।

अतः धर्म के अनुसार पितृ, देव, ऋषि, मनुष्य ऋणों से जो मुक्त नहीं होता उसे नीति तथा धर्म जानने वालों के अनुसार उत्तम लोक नहीं मिलते हैं।

यज्ञ से देव प्रसन्न होते हैं, स्वाध्याय और तप से मुनि (ऋषि), पुत्रों द्वारा श्राद्ध से पितर तथा दय-मैत्री (आ-नृशंस्य) से मनुष्य प्रसन्न होते हैं।

 मैं धर्म के अनुसार ऋषि-देव-मनुष्यों के ऋण से मुक्त हो चुका हूँ।

 (पितृ ऋण से मुक्ति बाकी है)।

(२) अन्य स्थान पर पञ्च महायज्ञ से ५ ऋणों की मुक्ति लिखी है-

ऋणमुन्मुच्य देवानामृषीणां च तथैव च।

 पितॄणामथ विप्राणामतिथीनां च पञ्चमम्॥१७॥

पर्यायेण विशुद्धेन सुविनीतेन कर्मणा।

एवं गृहस्थः कर्माणि कुर्वन् धर्मान्न हीयते॥१८॥

(= जो देव, ऋषि, पितर, विप्र और अतिथि-

इन ५ के ऋण से मुक्त हो कर शुद्ध विनीत वचन के साथ कर्म करता है, वह गृहस्थ कभी धर्म से भ्रष्ट नहीं होता।
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ३७)

७. गीता में यज्ञ का अर्थ -यज्ञ परिभाषा सम्बन्धी गीता के वाक्य हैं-


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। (गीता ३/९)

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

 अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ (गीता ३/१०)
एवं प्रवर्तितं चक्रं ... (गीता ३/१६)


अतः यज्ञ के लक्षण हैं-

(१) यह एक विशेष प्रकार का कर्म है।

(२) यज्ञ प्रजा के साथ ही उत्पन्न हुआ।

 अतः यह सदा रहेगा जब तक प्रजा रहेगी।

 (३) इससे उपयोगी वस्तु का उत्पादन होता है।

 वैशेषिक दर्शन के अनुसार कोई नयी वस्तु नहीं बनती है।

पुरानी वस्तुओं के अणुओं के मिलन से नयी वस्तु बनती है।

 यह अग्नि तथा सोम का मिलन ४ प्रकार का है।

 (४) इष्ट वस्तु का उत्पादन ही यज्ञ है।

 उसके साथ अनुपयोगी वस्तु भी हो सकती है।

 (५) यज्ञ प्रक्रिया चक्र में होती है।

 इसके ३ अर्थ हैं-

(क) उत्पादन के लिये सदा नयी स्थिति बनाने की आवश्यकता नहीं है,

 (ख) यज्ञ का चक्र सदा चलने पर ही मनुष्य सभ्यता चल सकती है,

 (ग) जिस वस्तु द्वारा सभी प्रकार के यज्ञ चक्र चलते रहें, वही उपयोगी हैं।

इन ५ लक्षणों से युक्त कार्य यज्ञ है।

 अतः इसकी परिभाषा हुई-

यज्ञ वह कर्म है जो चक्रीय क्रम में इच्छित वस्तु का उत्पादन करता है।

चक्रीय क्रम-

छान्दोग्य उपनिषद् में निर्माण क्रम के ५ या ७ भाग बताये गये हैं-

पञ्चविध या सप्तविध साम (अध्याय २)।

उसी अध्याय में सम्वत्सर, पति-पत्नी मिलन, वर्षा, मनुष्य शरीर का निर्माण, सृष्टि आदि के ५ खण्डों को अलग- अलग साम कहा गया है।

 यह सभी यज्ञ हैं।

 विशेषकर सृष्टि निर्माण का क्रम ५ पशुओं के रूप में कहा गया है-

अज, अवि, गो, अश्व, मनुष्य।

 इसी अर्थ में पुरुष की उत्पत्ति ५वीं आहुति में कही गयी है (छान्दोग्य उपनिषद् ५/९)।

यहाँ पशु का अर्थ कुछ विशेष गुण-कर्मों के पदार्थ हैं।

वैसे गुण वाले पशुओं को वही नाम दिया गया है।

 आहुति का अर्थ भी आग में किसी पदार्थ को जलाना नहीं है, वरन् एक पदार्थ का क्रमशः अगले पदार्थों में रूपान्तर है।


गीता में इस चक्रीय क्रम को ७ खण्डों में बांटा गया है-


अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

 यज्ञाद् भवन्ति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥१४॥

कर्मं ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्।

 तस्मात्सर्वगतं बह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥१५॥


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।

 अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
 (गीता, अध्याय ३)

(१) अक्षर-

यह चेतन कर्त्ता रूप है-

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते। (गीता १५/१६)।

(२) ब्रह्म सर्वगत अर्थात् सभी पदार्थों में है। यहाँ सर्व-व्यापी पदार्थ को ब्रह्म कहा है, उसका कर्त्ता रूप अक्षर है।

(३) कर्म-

जिस पदार्थ की स्पष्ट गति है, वह कर्म है।

 शुक्ल कर्म बाहर से दीखता है, कृष्ण गति बाहर से नहीं दीखती।

 जैसे मनुष्य का चलना, हाथ-पैर हिलाना आदि शुक्ल गति है।

शरीर के भीतर का पाचन, श्वास, चिन्तन, नाड़ी में प्राण का प्रवाह आदि कृष्ण गति हैं।

 उसी प्रकार पार्थिव शरीर के अङ्ग पृथ्वी के अत्त्त्वों में लीन होना कृष्ण गति है-

पृथ्वी के बाहर से देखने पर यह आन्तरिक परिवर्त्तन है।

जो भाग सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित हैं, वे अपने मूल स्रोत में मिलते हैं।

 वह शुक्ल गति होगी। (गीता ८/२२-२६)।

(५) यज्ञ-

जो कर्म चक्रीय क्रम में इष्ट उत्पादन करता है, वह यज्ञ है।


(५) पर्जन्य-

इसका शाब्दिक अर्थ मेघ है। पर यहाँ मेघ अर्थ उद्दिष्ट नहीं है।

इसके ४ खण्ड हैं-परि+जन्य। अर्थात् जनन के लिये परिस्थिति या वातावरण करना।

 पर्जन्य के २ खण्ड हुए-

क्रिया या उत्पादन का क्षेत्र, उसमें निर्माण योग्य परिस्थिति और साधन।

 मनुष्य के लिये सबसे जरूरी भोजन है, उसका उत्पादन कृषि ही मूल यज्ञ है।

 उस यज्ञ के लिये मुख्य पर्जन्य मेघ है।


(६) अन्न-

जिस पदार्थ का उपभोग किया जा सके, वह अन्न है।


८. गीता के यज्ञ -

 गीता में ५ ऋणों से मुक्त होने के लिए यज्ञों को १३ भाग में बाँटा गया है।

 हमारे सभी यज्ञ प्रकृति के चक्रों-दिन, मास, वर्ष- के अनुसार होते हैं।

 दैनिक यज्ञों को महायज्ञ कहा गया है।

(१) ब्रह्म यज्ञ-

सभी आधार, निर्माण, निर्माता आदि को ब्रह्म समझना ही यह यज्ञ है।

 वृक्ष के समान ब्रह्म के कई रूप हैं-

(क) ब्रह्म वृक्ष जैसा शान्त दर्शक है,

(ख) वृक्ष द्वारा फल निर्माण जैसा ब्रह्म निर्माता तथा उसका आधार है,

 (ग) मूल, शाखा-पत्र क्रम जैसा निर्माण का क्रम,

 (घ) वृक्ष के काष्ठ की तरह निर्माण सामग्री,

 (ङ) सभी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया, आदि।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।

 ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

 (गीता, ४/२४)

यह मन्त्र प्रायः भोजन के समय पढ़ा जाता है।

 पर भोजन की सभी क्रिया की तरह संसार की सभी क्रिया ब्रह्म है-अर्पण (हाथ से डालना), हवि (भोजन सामग्री), अग्नि (जठराग्नि से पाचन), पाचन क्रिया, अन्तिम परिणाम (मल, रक्त निर्माण आदि) तथा सभी का ब्रह्म कर्म से एकत्व।

(२) दैव यज्ञ-

ब्रह्माण्ड में ऊर्जा के जिस अंश से निर्माण हो सकता है वह प्रायः १/४ भाग है।

उसे देव कहते हैं।

बाकी ३/४ भाग असुर हैं, जिनसे कोई निर्माण नहीं होता।

पृथ्वी पर भी जो यज्ञ द्वारा स्वयं उत्पादन करते हैं वे देव हैं, जो बल द्वारा दूसरों की सम्पत्ति का उपभोग करते हैं, वे असुर हैं।


हम परिवेश की शक्तियों या देवताओं पर अपने अस्तित्व के लिये निर्भर हैं, अतः एक दूसरे की भावना द्वारा पूजा करने पर दोनों की उन्नति होती है। 

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयं परमवाप्स्यथ ॥ (गीता ३/११)


ध्यान द्वारा शरीर के देवताओं को निर्माण के लिये सक्रिय करते हैं या उनको सही मार्ग पर लगाते हैं।


(३) ब्रह्माग्नि यज्ञ-

यह यज्ञों का क्रम है।

 एक यज्ञ का उत्पाद दूसरे यज्ञ की सामग्री है।

 पुरुष (मनुष्य शरीर या विश्व) के ४ रूप हैं-क्षर पुरुष मनुष का भौतिक शरीर है।

वह अक्षर पुरुष या चेतन व्यक्तित्व के अधीन रहता है।

मनुष्य अव्यय पुरुष अर्थात् परिवार और समाज के भीतर है-दोनों परस्पर निर्भर हैं।

 अन्ततः सभी परात्पर में लीन होते हैं।

यह ४ पाद का पुरुष अज है, एक स्तर का अगले द्वारा उपयोग अज की बलि या बकरीद है।

 मनुष्य का मूल यज्ञ कृषि है, उसके अन्न से मनुष्य शरीर चलता है, अन्न से अन्य प्रकार के खाद्य उद्योग चलते हैं-

तेल, मसाला, अचार, शर्बत आदि का निर्माण।

 भूमि के निचले भाग से खनिज निकलते हैं, जिनको समुद्र मन्थन कहा गया है।

भूमि, जल, वायु और जीव मण्डल के विस्तार-ये पृथ्वी के ४ समुद्र हैं।

खनिज से धातु, यन्त्र आदि के उद्योग चलते हैं।

एक यज्ञ के उत्पाद का अगले यज्ञ में प्रयोग ही यज्ञ में यज्ञ की आहुति है।

 इनका क्रम व्यवस्थित करने से ही साध्य लोग उन्नति के शिखर पर पहुँचे और देव कहलाये-

 ब्रह्माग्नवपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति । (गीता ४/२५)

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ (पुरुष-सूक्त, यजुर्वेद ३१/१६)

(४) संयम यज्ञ-

विषयों से आकर्षित होकर मनुष्य अपने मार्ग से भटक जाता है।

 बेकार कामों से अपनी शक्ति हटाना प्रत्याहार है।

उसे मुख्य कार्य में लगाना धारणा है।

 धारणा लगातार बनाये रखना ध्यान है।

मस्तिष्क को शान्त रखना समाधि है।

इन तीनों-

धारणा, ध्यान, समाधि- का संयोग कर कार्य करना संयम है।

पातञ्जल योग सूत्र-

स्वविषयसम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। (२/५४)

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (३/१)

तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। (३/२)

 तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशुन्यमिव समाधिः। (३/३)।

 त्रयमेकत्र संयमः। (३/४)

योग सूत्र के अध्याय ३ में विभिन्न प्रकार के संयमों द्वारा ५२ प्रकार की सिद्धि का वर्णन है।

 ये सभी संयम यज्ञ हैं-


श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

 आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥ (गीता २/२७)

(५) इन्द्रिय यज्ञ-

यह संयम यज्ञ से सम्बन्धित है।

 उसका एक साधन होने पर भी यह अपने आप में यज्ञ है जिससे शरीर स्वस्थ, कार्यक्षम बनता है तथा सभी प्रकार के यज्ञ पूरे किये जा सकते हैं।

 इसके लिये ज्ञानेन्द्रियों के ५ गुणों को अपने विषयों से दूर करते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध।

(६) प्राण-कर्म यज्ञ

-५ प्राण और ५ उप-प्राण हैं, जो शरीर अंगों की क्रियाओं से सम्बन्धित हैं।

प्राणों का कर्म जानने पर उनको आत्म-संयम की अग्नि में जलाते हैं।

 इन्द्रियों और उनके प्राणों में समन्वय रख कर उनका अधिकतम उपयोग हो सकता है।


(७) द्रव्य यज्ञ-

इससे द्रव्य या खरीदे जानवाली सम्पत्ति का उत्पादन होता है।

 खरीद- बिक्री में पैसा एक हाथ से दूसरे में जाता रहता है।

यह द्रव की तरह प्रवाह है, अतः इसको द्रव्य कहते हैं।

 दक्षिण भारत भी व्यापार प्रधान होने के कारण द्रविड़ है।

उत्तर भारत समतल होने के कारण कृषि प्रधान है, यहाँ ऋत (समतल भूमि, आचार) रहने के कारण आर्य क्षेत्र है।

व्यापार में यात्रा और लाभ की चेष्टा होने के कारण कई नियमों का पालन नहीं होता जो कृषि क्षेत्र में सम्भव है।

 द्रव्य यज्ञ में द्रव्य (सम्पत्ति, पदार्थ, मुद्रा) का उत्पादन होता है।

 हर प्रकार के यज्ञ में उत्पादन का कुछ भाग भविष्य के लिये बचा कर रखते हैं जिससे यज्ञ सदा चलता रहे और हमारा पालन हो।

कृषि में कुछ अन्न बीज के लिये बचा कर रखते हैं जिससे अगले वर्ष भी खेती हो सके।

 व्यापार में भी उतना ही खर्च करते हैं जिससे मूलधन बचा रहे।

इसे ही कहते हैं कि यज्ञ से बचा अन्न ही खाना चाहिये।

उसे अमृत-भुजः कहा गया है, क्योंकि ऐसा करने वाला सदा कर्म और भोग करता रहेगा।


(८) तपो-यज्ञ-

तप का अर्थ श्रम है।

 इससे ताप (गर्मी) होती है अतह् यह तप है।

दृश्य जगत् को भी तपो-लोक कहा गया क्योंकि इसके एक भाग का तेज अन्य भागों तक पहुँच सकता है।

 सिद्धान्ततः तपो लोक से बाहर से कोई प्रकाश हम तक नहीं पहुँच सकता। देश में उर्जा के साधनों का संरक्षण और उपयोग ही तपो यज्ञ है-

बिजली उत्पादन, कोयला, पेट्रोल आदि का भन्डार सुरक्षित रखना।

 इसी तप से असुरों ने देवताओं को कई बार पराजित किया था।

 व्यक्तिगत रूप से दैनिक व्यायाम, भोजन और व्यवहार में संयम और कुछ कष्ट सहन क्षमता रखना तपो यज्ञ है।

ऐसा नहीं है कि केवल ऋषि ही तप करते थे।

 असुरों ने भी बहुत कठोर तप किया। उनकी तुलना में देवता विलासी होने के कारण हार गये।

(९) योग यज्ञ-

योग का अर्थ है जोड़ना।

 शरीर में श्वास और क्रिया को जोड़ना योग है।

 इसके ८ स्तरों के बाद अन्ततः आत्मा और परमात्मा का योग होता है-

(१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६)  धारणा, (७) ध्यान, (८) समाधि।


(१०) स्वाध्याय यज्ञ-

नियमित अध्ययन, चिन्तन और ध्यान द्वारा अपनी मानसिक शक्ति का विकास और ज्ञान पाना स्वाध्याय यज्ञ है।


(११) ज्ञान यज्ञ-

समाज में शिक्षा व्यवस्था, ज्ञान परम्परा को चलाना और विकास ज्ञान यज्ञ है।

 यह गुरु-शिष्य परम्परा  से आगे बढ़ता है।

 स्वाध्याय व्यक्ति के लिये है, यह समाज के लिये।

(१२) प्राणायाम यज्ञ-

श्वास नियन्त्रण के रूप में यह योग यज्ञ का चतुर्थ अंग है।

 यहाँ इसका अर्थ है कि कम से कम साधन द्वारा शरीर को शक्तिशाली और उपयोगी बनाया जाय।

 शरीर में शक्ति के लिये भोजन लेना और उसका पाचन जरूरी है।

 यह प्राण का अपान में हवन है। अपान वायु से पाचन होकर मल निष्कासन होता है।

 किन्तु शरीर में भोजन सञ्चित करने से ही कोई लाभ नहीं है।

 जैसे नियमित भोजन जरूरी है, नियमित रूप से कुछ शक्ति खर्च कर काम करना भी जरूरी है।

 यह अपान का प्राण में हवन है।

भौतिक स्तर पर शुद्ध भोजन लेकर उसे पचाना और दैनिक कार्य या व्यायाम करना ही प्राणायाम यज्ञ है।

 सूक्ष्म स्तरों पर श्वास और मन का नियन्त्रण भी होता है।


(१३) प्राण यज्ञ-

यह प्राण का अपान में तथा अपान का प्राण में हवन है तथा नियत आहार द्वारा प्राण का प्राण में हवन है-


अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

 प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम परायणः॥

अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति।

 (गीता २/२९-३०)

शरीर में भोजन का ग्रहण प्राण का ग्रहण है, जिसका अपान में हवन होता है।

काम में उसका खर्च होना अपान का प्राण में हवन है।

अन्न के पाचन से आरम्भ कर ७ स्तरों पर प्राण का उत्थान प्राण-यज्ञ है।

 बृहदारण्यक उपनिषद् (१/५/१) के अनुसार हम ७ प्रकार का अन्न लेते हैं-

(१) मन या ज्ञान, (२) प्राण, (३) पृथिवी (ठोस पदार्थ), (४) जल, (५) तेज, (६) वायु (श्वास), (७) आकाश। वैशेषिक दर्शन में ९ द्रव्य हैं इनमें काल और आत्मा को भी गिना गया है।


छान्दोग्य उपनिषद् (६/५/१) में कहा गया है कि अन्न का ३ भाग में पाचन होता है-

ठोस पदार्थ मल रूप में निकल जाता है, मध्यम का उपयोग शरीर को पुष्ट करने में होता है तथा सूक्ष्म भाग मन हो जाता है-

अन्नमशितं त्रेधा विधीयते, तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति, यो मध्यस्तन्मांसं, योऽणिष्टस्तन्मनः।

(छान्दोग्य ६/५/१)।


९. ऋणों के अर्थ-

देव, ऋषि, पितर के व्यापक अर्थ के अनुसार इनमें कई बातें समान हैं।

 भूतों में मनुष्य भी आता है। अतः ऋण या उनसे मुक्ति के लिए यज्ञों के ३, ४, या ५ भेद कहे गये हैं।


ब्रह्माण्ड में विभिन्न स्तरों पर, पृथ्वी पर या शरीर के भीतर फैले हुए प्राण देव-असुर हैं।

 इनमें देव प्राण से निर्माण होता है।

असुर प्राण निष्क्रिय है या विनाश करता है।

 मनुष्यों में भी जो जाति या व्यक्ति स्वयं यज्ञ द्वाराअपना पालन करता है वह देव है।

जो दूसरों का लूट कर काम चलाता है वह असुर है।

 उस लूट में उनका धर्म यही है कि लूट का १/५ भाग राजा को दिया जाय (कुरान में माल-ए-गनीमत, या स्पेन-पुर्तगाल के बीच लूट क्षेत्रों के बँटवारे का पोप द्वारा नियम)।

ऋषि के कई अर्थ हैं-

(१) विश्व का सूक्ष्मतम पदार्थ जिससे क्रमशः पितर, देव-दानव, जगत् कण, कुण्डलिनी, जीव (परमाणु), कलिल, मनुष्य बने-
पहले लिखा जा चुका है।

(२) विश्व के १० आयामों में ७ वां-

पिण्डों या कणों का परस्पर आकर्षण, ऋषि या रस्सी जैसा,

(३) आकाश के तारा जिनका प्रकाश किरण या अदृश्य गुरुत्व द्वारा हमसे सम्बन्ध है।

(४) मन्त्रद्रष्टा ऋषि,

(५) ज्ञान प्रवर्तक ऋषि,

 (६) गोत्र प्रवर्तक ऋषि,

 (७) मनुष्यों में २१ पीढ़ी तक आनुवंशिक प्रभाव।

ऋषि ऋण के प्रसंग में हम ज्ञान प्रवर्तक अर्थ लेते हैं।

परम्परा से जो ज्ञान हमें मिला है, उसे भविष्य की सन्तानों के लिएये सुरक्षित रखना है।

 स्वयं का ज्ञान अर्जन स्वाध्याय है, समाज की परम्परा बढ़ाना ज्ञान यज्ञ है।

इसके लिये ब्रह्मचर्य, तप आदि आवश्यक हैं।


पितर के भी कई अर्थ हैं-

देव पितर, ऋषि पितर, ऋतु पितर, परमेष्ठी पितर (ब्रह्माण्ड), मनुष्य पितर।

 यहाँ मनुष्य पितर का अर्थ लिया जाता है।

 ये जीवित माता-पिता या पितामह भी हैं, मृत पूर्वज भी।

 माता-पिता या पितामह ने हमें जन्म देकर पालन किया है, अतः उनके अक्षम होने पर उनका पालन हमारा कर्तव्य है।


पितरों से सबसे स्थूल सम्बन्ध पिण्ड का है जो ७वीं पीढ़ी तक जाता है।

 इसमें तीसरी पीढ़ी तक पिण्डभाक् या अश्रुमुख पितर हैं।

इनमें अधिकांश से प्रत्यक्ष परिचय रहता है तथा उनके जाने का कष्ट दोनों को होता है-अतः ये अश्रुमुख हैं।

४ से ७वीं पीढ़ी तक नन्दीमुख (आनन्द या प्रसन्न मुख पितर) हैं जिनका श्राद्ध विवाह तथा यज्ञोपवीत में किया जाता है जिससे वे प्रसन्न हो कर मंगल करें।

इनमें पिण्ड तथा उदक् (जल) अंश भी है, अतः इनको लेपभाक् कहते हैं।

इसी को गीता (१/४२) में पिण्डोदक क्रिया कहा है।

८ से १४वीं पीढ़ी तक पिण्ड से सूक्ष्म उदक सम्बन्ध रहता है।

 १५-२१वीं पीषी तक ऋषि सम्बन्ध सूक्ष्मतम है।

मनुष्य जन्म पिता के वीर्य तथा माता के रज दोनों से होता है। यह वेद, आयुर्वेद, पुराण, उनके अनुसार रघुवंश (२/७५) आदि में भी है।

 पर सप्त-पुरुष तक के ऋण की गणना में केवल पिता की गणना की गयी है।

मनुष्य का गुण ७ पीढ़ी तक चलता है। इनके बिन्दुओं को सह कहा है, इनका सम्बन्ध सूत्र तन्तु तथा इनका रूपान्तर या विवर्त्त सूनु (सन्तान) है।

 कुल ८४ बिन्दु कहे गये हैं जिनमें २८ गर्भ काल में १० बार चन्द्र की २८ नक्षत्रों में गति के अनुसार हैं, अर्थात् उस समय की खगोलीय स्थिति का प्रभाव।

 ५६ मनुष्य के हैं-

जिनमें कुछ उसके अपने पूर्व जन्म के संचित कर्म या संस्कार हैं, बाकी माता- पिता से मिले हैं।

 आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार माता-पिता से ४६ क्रोमोजोम मिलते हैं।

 बाकी १० पूर्व जन्म के संस्कारों के कहे जा सकते हैं।

४६ या ५६ सह-बिन्दु ७ बार तक विभाजित हो सकते हैं, अतः पिण्ड (ठोस, पूर्ण वस्तु) प्रभाव ७वीं पीढ़ी तक रहेगा।


५६ के विभाजन-

२८, १४, ७, ४, २, १ (मूल को मिला कर ७ स्तर)

४६ के विभाजन-२३, १२, ६, ३, २, १।

कुछ वैदिक सन्दर्भ-

७ पुरुष तक-

सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्।

उभे इदस्योभयस्य राजत उभे यतेते उभयस्य पुष्यतः॥ (ऋक्, १०/१३/५)

(ऋक्, १०/५६)-

महिम्न एषां पितरश्च नेशिरे देवा देवेष्वदधुरपि क्रतुम्।

सम विव्यचुरुत यान्यत्विषुरैषां तनूषु नि विविशुः पुनः॥४॥

सहोभिर्विश्वं परि चक्रमू रजः पूर्वा धामान्यमिता विमानाः।

तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुष प्रजा अनु॥५॥


द्विधा सूनवो ऽसुरं स्वर्विदमास्थापयन्त तृतीयेन कर्म्मणा।

स्वां प्रजां पितरः पित्र्यं सह आवरेष्वदधुस्तन्तुमाततम्॥६॥

नावा न क्षोदः प्रदिशः पृथिव्याः स्वस्तिभिरिति दुर्गाणि विश्वा।

 स्वां प्रजां बृहदुक्थो महित्वावरेष्वदधादा परेषु॥७॥

सहोभिः (सह) शुक्र की २८ कला का पितृभाग।


रजः -पुत्र पौत्र आदि।

 पूर्वाः- आहुति के पहले का।

धामानि -पितृ पिण्ड।

 तनूषु-पितर।

 भुवना-सूनवः (सूनु = सन्तान)

पुरुधा = बहुत।

 तन्तु = सूत्र, सम्बन्ध का माध्यम।


७+७ = १४ पुरुष तक-

यह आकाश के १४ भूतसर्गों जैसा है।

 १४ माहेश्वर सूत्रों से विश्व तथा वाक्-

दोनों की सृष्टि हुई है।


चतुर्दशान्ये महिमानो अस्य तं धीरा वाचा प्र णयन्ति सप्त।

आप्नानं तीर्थं क इह प्र वोचद् येन पथा प्रपिबन्ते सुतस्य॥ (ऋक्, १०/११४/७)


२१ पुरुष तक अङ्गिरा या ऋषि प्रभाव-एकविंशौ ते अग्न ऊरू (काठक संहिता, ३९/२, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र, १६/३३/५).,


एकविंशो ब्रह्म सम्मितः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व, ५/२५),

एकविंशो वै पुरुषः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/३/७/१),


यदेकविंशो य देवास्य (यजमानस्य) पदोरष्ठीवतोरपूतं तत्तेनापयन्ति (अथवा अपहन्ति?)।

(ताण्ड्य महाब्राह्मण, १७/५/६)

विरूपास इदृषयस्त इद्गम्भीर वेपसः।

ते आङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परिजज्ञिरे॥ (ऋक्, १०/६२/५)

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