मंगलवार, 21 मई 2019


भेडाघाट में चौसठ योगिनियाँ 
हरनाम सुनाऊँ तुम्हें लिख के 
शिव मंदिर प्रांगण में उनकी
दिव्याकृतियों से छवि छलके
नंदी पै सवार हैं पार्वती 
शिव शंकर जी सँग में उनके
चहुँओर विराजीं हैं योगिनियाँ
अब नाम कहूँ सुनिये सबके //१//

काली कपोतिका सिंहमुखी
वृहत्तुण्डा वाराही जगद्जननी
ललजिह्वा उलूकिका विकटानना
शरभानना काटत दैत्य अनी
श्वेनी मयूरी मार्जारी सुकी
कटपूतना चण्डी मनों दामिनी
क्रौंची कामाक्षी मृगाक्षी रक्ताक्षी
मृगलोचना यक्षिणी भयावनी //२//

रूक्षाक्षी केकराक्षी कुब्जा कोटराक्षी
वृहदकुक्षी माया महामोहिनी
ग्रधास्या सर्पास्या व्यत्तास्या प्रचण्डा
व्योमैक चरणोर्ध्वदृशी योगिनी
प्रेतवाहिनी तापिनी विद्युतप्रभा
दन्तसूककरा मानो सौदामिनी
अष्टवक्रा विकटलोचना पापहन्त्री
स्वदंष्ट्रा माँ काली महामोहिनी //३ //

गर्भभक्षा शवहस्त औ कपाल हस्ता
धूमा नि:श्वासा रुधिरपायनी
गजानना पाशहस्ता शिशुघ्नी
अट्टाट्टहासा हैं भय दायनी
बलाकास्या हयग्रीवा वानरांनना
मृगाशीर्षा हैं सिद्धियाँ प्रदायनी
नमोसुराप्रिया काकतुंडिका
आन्त्रमालिनी दुष्टों की दुखदायनी //४//

पुष्टग्रीवा शिवारावा शुष्कोदरी
चण्डविक्रमा वृषानना कोटरी
दण्डहस्ता वसाधया सहोदरी
शोषणीदृष्टि जय काली महोदरी
तुमही स्थूलकेशी स्थूलनासिका
तेरे रूप अनेकों हैं माँ कालिका
मेरा सत सत नमन हे जगतपालिका
कृपादृष्टि करो सृष्टि की नायिका //५//

दोहा -चौसठ योगिनि का करे,नाम रूप गुणगान /
"मधुकर"उस माँ भक्त के संकट परें न प्राण //

क्या आप को पता है चौसठ योगिनियो के नाम
आदिशक्ति का सीधा सा सम्बन्ध है इस शब्द का जिसमे प्रकृति या ऐसी शक्ति का बोध होता जो उत्पन्न करने और पालन करने का दायित्व निभाती है,
जिसने भी इस शक्ति की शरण में खुद को समर्पित कर दिया उसे फिर किसी प्रकार कि चिंता करने कि कोई आवश्यकता नहीं वह परमानन्द हो जाता है!

चौंसठ योगिनियां वस्तुतः माता आदिशक्ति कि सहायक शक्तियों के रूप में मानी जाती हैं जिनकी मदद से माता आदिशक्ति इस संसार का राज काज चलाती हैं एवं श्रष्टि के अंत काल में ये मातृका शक्तियां वापस माँ आदिशक्ति में पुनः विलीन हो जाती हैं और सिर्फ माँ आदिशक्ति ही बचती हैं फिर से पुनर्निर्माण के लिए,
बहुत बार देखने में आता है कि लोग वर्गीकरण करने लग जाते हैं और उसी वर्गीकरण के आधार पर साधकगण अन्य साधकों को हीन - हेय दृष्टि से देखने लग जाते हैं क्योंकि उनकी नजर में उनके द्वारा पूजित रूप को वे मूल या प्रधान समझते हैं और अन्य को द्वितीय भाव से देखते हैं जबकि ऐसा उचित नहीं है हर साधक का दुसरे साधक के लिए सम भाव होना चाहिए मैं किन्तु नैतिक दृष्टिकोण और अध्यात्मिकता के आधार पर यदि देखा जाये तो न तो कोई उच्च है न कोई हीन हम आराधना करते हैं तो कोई अहसान नहीं करते यह सिर्फ अपनी मानसिक शांति और संतुष्टि के लिए और अगर कोई दूसरा करता है तो वह भी इसी उद्देश्य कि पूर्ती के लिए !
अब अगर हम अपने विषय पर आ जाएँ तो इस मृत्यु लोक में मातृ शक्ति के जितने भी रूप विदयमान हैं सब एक ही विराट महामाया आद्यशक्ति के अंग,भाग , रूप हैं साधकों को वे जिस रूप की साधना करते हैं उस रूप के लिए निर्धारित व्यवहार और गुणों के अनुरूप फल प्राप्त होता है।
चौंसठ योगिनियां वस्तुतः माता दुर्गा कि सहायक शक्तियां है जो समय समय पर माता दुर्गा कि सहायक शक्तियों के रूप में काम करती है एवं दुसरे दृष्टिकोण से देखा जाये तो यह मातृका शक्तियां तंत्र भाव एवं शक्तियों से परिपूरित हैं और मुख्यतः तंत्र ज्ञानियों के लिए प्रमुख आकर्षण का केंद्र हैं !
जिन नामों का अस्तित्व मिलता है वे इस प्रकार हैं :-
१. बहुरूपा
२. तारा
३. नर्मदा
४. यमुना
५. शांति
६. वारुणी
७. क्षेमकरी
८. ऐन्द्री
९. वाराही
१०. रणवीरा
११. वानरमुखी
१२. वैष्णवी
१३. कालरात्रि
१४. वैद्यरूपा
१५. चर्चिका
१६. बेताली
१७. छिनमास्तिका
१८. वृषभानना
१९. ज्वाला कामिनी
२०. घटवारा
२१. करकाली
२२. सरस्वती
२३. बिरूपा
२४. कौबेरी
२५. भालुका
२६. नारसिंही
२७. बिराजा
२८. विकटानन
२९. महालक्ष्मी
३०. कौमारी
३१. महामाया
३२. रति
३३. करकरी
३४. सर्पश्या
३५. यक्षिणी
३६. विनायकी
३७. विन्द्यावालिनी
३८. वीरकुमारी
३९. माहेश्वरी
४०. अम्बिका
४१. कामायनी
४२. घटाबारी
४३. स्तुति
४४. काली
४५. उमा
४६. नारायणी
४७. समुद्रा
४८. ब्राह्मी
४९. ज्वालामुखी
५०. आग्नेयी
५१. अदिति
५२. चन्द्रकांति
५३. वायुबेगा
५४. चामुंडा
५५. मूर्ति
५६. गंगा
५७. धूमावती
५८. गांधारी
५९. सर्व मंगला
६०. अजिता
६१. सूर्य पुत्री
६२. वायु वीणा
६३. अघोरा
६४. भद्रकाली
योगिनी शक्ति को पूजा और कर्मकांड के समय जरूर पूजा जाता है उनके बिना कोई भी कर्मकांड पूरा नहीं होता.
किन्तु एक सबसे बड़ा राज भी है जिससे आम जनमानस अपरिचित ही है. वो है चौसठ कलाओं का इन योगिनियों से गहरा और गुप्त सम्बन्ध.
यदि इन योगिनियों को जान लिया जाए तो आप चौसठ कलाओं में निष्णांत हो सकते हैं.
चौसठ कलाओं का साकार रूप ही चौसठ योगिनियाँ हैं. लेकिन ये सारा ज्ञान गुप्त है.
गुरु के आश्रय में ही परम योग्य शिष्य इस ज्ञान को ग्रहण कर पाता है. चौसठ कलाओं को समझाना ही कठिन हैं कोई उनको सीख ले ये तो कल्पनाओं का वास्तविक हो जाने जैसे है.
समस्त ब्रह्माण्ड के देवी देवताओं की प्रतिमाओं में जब शक्तियां या कलाएं कम हो जाती है तो आज भी वो इस ६४ योगिनियों के पास जा कर ही शक्ति प्राप्त करते है.
****** 64 कलाओं का रहस्य ******
16 कलाओ से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण,
भगवान परशुराम आठ कलाओंसे युक्त थे,
भगवान राम बारह कलाओंसे युक्त थे,
कृष्ण ही एक मात्र ऐसे देव है जो 16कलाओंसे परिपूर्ण अवतरित हुए. जिन्हें पूर्ण अवतार कहा गया है.
क्या आप को पता हैं यह सारा विश्व प्राण शक्ति की पर
टिका है. यहाँ पर सब कुछ में कुछ प्राण शक्ति होती हैं. किन्तु प्राण के मात्रक (यूनिट) भिन्न होते हैं. पत्थर से लेकर वायु तक, जानवरों से लेकर मनुष्य तक, सब में अलग अलग मात्रा में प्रा उर्जा मौजूद है.
1.पत्थर (पृथ्वी) में प्राण का 1 (कला)युनिट होता हैं.
2.जल में प्राण के 2 (कला)युनिट होते हैं.
3.अग्नि में प्राण के 3(कला)युनिट होते हैं.
4.वायु में प्राण के 4(कला)युनिट होते हैं.
5.आकाश में प्राण के 5(कला)युनिट होते हैं.
6.पेड़ और पशुओ में प्राण के 5(कला)मात्रक होते हैं.
मानवो में प्राण के 6-7 मात्रक होते हैं.परन्तु मनुष्य
प्राणों की उच्चतम ईकाई अभिव्यक्त करने की संभावना के साथ पैदा होता है...
इससे आगे 9 कलाए "महापुरुषों,ऋषि मुनियों"
में होती है, और इससे भी ज्यादा कलाए, भगवान के अंश अवतार "वाराह, नरसिहं" आदि में होती है.
भगवान कृष्ण में प्राण की 16 कलाएं थी, उनकी चेतना पूर्ण विकसित है और इसलिए उन्हे पद्द्मनाभा भी कहते हैं.
श्री कृष्ण की सोलह कलाएं इस प्रकार है-
प्रथम कला-अन्नमय,
द्वितीय कला -प्राणमय,
तृतीय कला- मनोमय
चतुर्थ कला-विज्ञानमय,
पंचम कला -आनंदमय,
(उपरोक्त पांच कलाएं हर मनुष्य में पहले से ही होती हैं)
षष्टम कला-अतिशयिनी,
सप्तम कला-विपरिनाभिमी,
अष्टम कला-संक्रमिनी,
नवम कला-प्रभवि,
दशम कला-कुंथिनी,
ग्यारहवीं कला-विकासिनी,
बारहवी कला -मर्यदिनी,
तेरहवीं कला-सन्हालादिनी,
चौदहवी कला-आह्लादिनी,
पंद्रहवीं कला-परिपूर्ण,
सोलहवी कला-स्वरुपवस्थित.
भगवान श्री कृष्ण की 64 कलाए
भगवान श्रीकृष्ण जब संदीपनी जी के आश्रम में पढ़ने गए तब उन्होंने 64 दिनों में 64 कलाये सीख ली, वे सभी कलाओ में निपुण थे,
भगवान सर्वज्ञ हैं, अतः इन कलाओं के ज्ञाता होना कोई
बड़ी बात भगवान के लिए नहीं है.
वे64कलाये इस प्रकार हैं
व्यवहारिक ४४ कलाएँ-
1. ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि की विधि
2. हाथी, घोड़ा, रथ आदि चलाना
3. मिट्टी और कांच के बर्तनों को साफ रखना
4. लकड़ी के सामान पर रंग-रोगन सफाईकरना
5. धातु के बर्तनों को साफ करना और उन पर पालिश करना
6. चित्र बनाना
7. तालाब, बावड़ी, कमान आदि बनाना
8. घड़ी, बाजों और दूसरी मशीनों को सुधारना
9. वस्त्र रंगना
10. न्याय, काव्य, ज्योतिष, व्याकरण सीखना
11. नांव, रथ, आदि बनाना
12. प्रसव विज्ञान
13. कपड़ा बुनना, सूत कांतना, धुनना
14. रत्नों की परीक्षा करना
15. वाद-विवाद, शास्त्रार्थ करना
16. रत्न एवं धातुएं बनाना
17. आभूषणों पर पालिश करना
18. चमड़े की मृदंग, ढोल नगारे, वीणा वगैरेह तैयार करना
19. वाणिज्य
20. दूध दुहना
21. घी, मरूवन तपाना,
22. कपड़े सीना
23. तरना
24. घर को सुव्यवस्थित रखना
25. कपड़े धोना
26. केश-श्रृंगार
27. मृदु भाषण वाक्पटुता
28. बांस के टोकने, पंखे, चटाई आदि बनाना
29. कांच के बर्तन बनाना
30. बाग बगीचे लगाना, वृक्षारोपण, जल सिंचन करना
31. शस्त्रादि निर्माण
32. गादी गोदड़े-तकिये बनाना
33. तैल निकालना
34. वृक्ष पर चढ़ना
35. बच्चों का पालन पोषण करना
36. खेती करना
37. अपराधी को उचित दंड देना
38. भांति भांति के अक्षर लिखना
39. पान सुपारी बनाना और खाना
40. प्रत्येक काम सोच समझकर करना
41. समयज्ञ बनना
42. रंगे हुए चांवलों से मंडल मांडना
43. सुगन्धित इत्र, तैल-धूपादि बनाना
44. हस्त कौशल-जादू के खेल से मनोरंजन करना
संगीत की ७ कलाएं :
1. नृत्य
2. वादन
3. श्रृंगार
4. आभूषण,
5. हास्यादि हाव-भाव
6. शय्या-सजाना
7. शतरंज आदि कौतुकी क्रीड़ा करना
आयुर्वेदशास्त्र की ८ कलाएं :
1. आसव, सिर्का, आचार, चटनी, मुरब्बे बनाना
2. कांटा-सूई आदि शरीर में से निकालना, आंख का कचरा कंकर
निकालना,
3. पाचक चूर्ण बनाना
4. औषधि के पौधे लगाना
5. पाक बनाना
6. धातु, विष, उपविष के गुण दोष जानना
7. भभके से अर्क खीचना
8. रसायन-भस्मादि बनाना
धनुर्वेद सम्बन्धी ५ कलाएं :
1. लड़ाई लड़ना
2. कुश्ती लड़ना
3. निशाना लगाना
4. व्यूह प्रवेश-निर्गमन एवं रचना
5. हाथी, घोड़े, मेंढे सांड, लड़ाना
साभार:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1262391400476966&id=100001183533798
























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