रचना
:
आदि
जगद्गुरु
शंकराचार्य...
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दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥
[हे
देवी
!
सुरेश्वरी
!
भगवती
गंगे
!
आप
तीनो
लोको
को
तारने
वाली
हो...
आप
शुद्ध
तरंगो
से
युक्त
हो...
महादेव शंकर
के
मस्तक
पर
विहार
करने
वाली
हो...
हे
माँ
!
मेरा
मन
सदैव
आपके
चरण
कमलो
पर
आश्रित
है...
भागीरथिसुखदायिनि
मातस्तव
जलमहिमा
निगमॆ
ख्यातः
।
नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
[
हे
माँ
भागीरथी
!
आप
सुख
प्रदान
करने
वाली
हो...
आपके
दिव्य
जल
की
महिमा
वेदों
ने
भी
गई
है...
मैं
आपकी
महिमा
से
अनभिज्ञ
हू...
हे
कृपामयी
माता
!
आप
कृपया
मेरी
रक्षा
करें...
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि
गङ्गॆ
हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ
।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
[
हे
देवी
!
आपका
जल
श्री
हरी
के
चरणामृत
के
समान
है...
आपकी
तरंगे
बर्फ,
चन्द्रमा
और
मोतिओं
के
समान
धवल
हैं...
कृपया
मेरे
सभी
पापो
को
नष्ट
कीजिये
और
इस
संसार
सागर
के
पार
होने
में
मेरी
सहायता
कीजिये...
तव
जलममलं
यॆन
निपीतं
परमपदं
खलु
तॆन
गृहीतम्
।
मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
[हे
माता
!
आपका
दिव्य
जल
जो
भी
ग्रहण
करता
है,
वह
परम
पद
पता
है...
हे
माँ
गंगे
!
यमराज
भी
आपके
भक्तो
का
कुछ
नहीं
बिगाड़
सकते...
पतितॊद्धारिणि
जाह्नवि
गङ्गॆ
खण्डित
गिरिवरमण्डित
भङ्गॆ
।
भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥
[हे
जाह्नवी
गंगे
!
गिरिवर
हिमालय
को
खंडित
कर
निकलता
हुआ
आपका
जल
आपके
सौंदर्य
को
और
भी
बढ़ा
देता
है...
आप
भीष्म
की
माता
और
ऋषि
जह्नु
की
पुत्री
हो...
आप
पतितो
का
उद्धार
करने
वाली
हो...
तीनो
लोको
में
आप
धन्य
हो...
कल्पलतामिव
फलदां
लॊकॆ
प्रणमति
यस्त्वां
न
पतति
शॊकॆ
।
पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥
[
हे
माँ
!
आप
अपने
भक्तो
की
सभी
मनोकामनाएं
पूर्ण
करने
वाली
हो...
आपको
प्रणाम
करने
वालो
को
शोक
नहीं
करना
पड़ता...
हे
गंगे
!
आप
सागर
से
मिलने
के
लिए
उसी
प्रकार
उतावली
हो
जिस
प्रकार
एक
युवती
अपने
प्रियतम
से
मिलने
के
लिए
होती
है...
तव
चॆन्मातः
स्रॊतः
स्नातः
पुनरपि
जठरॆ
सॊपि
न
जातः
।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥
[हे
माँ
!
आपके
जल
में
स्नान
करने
वाले
का
पुनर्जन्म
नहीं
होता...
हे
जाह्नवी
!
आपकी
महिमा
अपार
है...
आप
अपने
भक्तो
के
समस्त
कलुशो
को
विनष्ट
कर
देती
हो
और
उनकी
नरक
से
रक्षा
करती
हो...
पुनरसदङ्गॆ
पुण्यतरङ्गॆ
जय
जय
जाह्नवि
करुणापाङ्गॆ
।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥
[हे
जाह्नवी
!
आप
करुणा
से
परिपूर्ण
हो...
आप
अपने
दिव्य
जल
से
अपने
भक्तो
को
विशुद्ध
कर
देती
हो...
आपके
चरण
देवराज
इन्द्र
के
मुकुट
के
मणियो
से
सुशोभित
हैं...
शरण
में
आने
वाले
को
आप
सुख
और
शुभता
(प्रसन्नता)
प्रदान
करती
हो...
रॊगं
शॊकं
तापं
पापं
हर
मॆ
भगवति
कुमतिकलापम्
।
त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥
[
हे
भगवती
!
मेरे
समस्त
रोग,
शोक,
ताप,
पाप
और
कुमति
को
हर
लो...
आप
त्रिभुवन
का
सार
हो
और
वसुधा
(पृथ्वी)
का
हार
हो...
हे
देवी
!
इस
समस्त
संसार
में
मुझे
केवल
आपका
ही
आश्रय
है...
अलकानन्दॆ
परमानन्दॆ
कुरु
करुणामयि
कातरवन्द्यॆ
।
तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥
[हे
गंगे
!
प्रसन्नता
चाहने
वाले
आपकी
वंदना
करते
हैं...
हे
अलकापुरी
के
लिए
आनंद-स्रोत...
हे
परमानन्द
स्वरूपिणी...
आपके
तट
पर
निवास
करने
वाले
वैकुण्ठ
में
निवास
करने
वालो
की
तरह
ही
सम्मानित
हैं...
वरमिह
नीरॆ
कमठॊ
मीनः
किं
वा
तीरॆ
शरटः
क्षीणः
।
अथवाश्वपचॊ
मलिनॊ
दीनस्तव
न
हि
दूरॆ
नृपतिकुलीनः
॥
11
॥
[
हे
देवी
!
आपसे
दूर
होकर
एक
सम्राट
बनकर
जीने
से
अच्छा
है
आपके
जल
में
मछली
या
कछुआ
बनकर
रहना...
अथवा
तो
आपके
तीर
पर
निर्धन
चंडाल
बनकर
रहना...
भॊ
भुवनॆश्वरि
पुण्यॆ
धन्यॆ
दॆवि
द्रवमयि
मुनिवरकन्यॆ
।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
[हे
ब्रह्माण्ड
की
स्वामिनी
!
आप
हमें
विशुद्ध
करें...
जो
भी
यह
गंगा
स्तोत्र
प्रतिदिन
गाता
है...
वह
निश्चित
ही
सफल
होता
है...
यॆषां
हृदयॆ
गङ्गा
भक्तिस्तॆषां
भवति
सदा
सुखमुक्तिः
।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
[
जिनके
हृदय
में
गंगा
जी
की
भक्ति
है...
उन्हें
सुख
और
मुक्ति
निश्चित
ही
प्राप्त
होते
हैं...
यह
मधुर
लययुक्त
गंगा
स्तुति
आनंद
का
स्रोत
है...
गङ्गास्तॊत्रमिदं
भवसारं
वांछितफलदं
विमलं
सारम्
।
शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
[भगवत
चरण
आदि
जगद्गुरु
द्वारा
रचित
यह
स्तोत्र
हमें
विशुद्ध
कर
हमें
वांछित
फल
प्रदान
करे...
भगवती
गंगा
देवये
नमः
...|
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