महेश्वर सूत्रों की व्याख्या ::: -- Hemraj Sharma
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महेश्वर सूत्र १४ है। इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार
से संयोजित किया गया है। फलतः, महर्षि पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों
को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप में ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
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महेश्वर सूत्र १४ है। इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार
से संयोजित किया गया है। फलतः, महर्षि पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों
को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप में ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों
का समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों
(अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १०
सूत्रों में व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यञ्जन
वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल्
भी प्रत्याहार हैं।
“प्रत्याहार” का अर्थ होता है – संक्षिप्त
कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के
प्रथम पाद के ७१ वे सूत्र ‘आदिरन्त्येन
सहेता’ (१-१-७१) द्वारा प्रत्याहार
बनाने की विधि का महर्षि पाणिनि ने
निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः)
आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण
(सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है
जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण
के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में
(collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: -
अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि
वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम
वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार
बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि
अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने
वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध
कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
का समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों
(अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १०
सूत्रों में व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यञ्जन
वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल्
भी प्रत्याहार हैं।
“प्रत्याहार” का अर्थ होता है – संक्षिप्त
कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के
प्रथम पाद के ७१ वे सूत्र ‘आदिरन्त्येन
सहेता’ (१-१-७१) द्वारा प्रत्याहार
बनाने की विधि का महर्षि पाणिनि ने
निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः)
आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण
(सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है
जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण
के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में
(collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: -
अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि
वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम
वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार
बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि
अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने
वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध
कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वे सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम
१४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ
मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष, स, ह।
१४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ
मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष, स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की
इत् संज्ञा श्री पाणिनि ने की है। इत्
संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का
उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल
अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है,
किन्तु व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी
गणना नही की जाती है अर्थात् इनका
प्रयोग नही होता है।
इत् संज्ञा श्री पाणिनि ने की है। इत्
संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का
उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल
अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है,
किन्तु व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी
गणना नही की जाती है अर्थात् इनका
प्रयोग नही होता है।
इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र (१.११४) से "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" (८.४.४७) से बनता है। इस प्रकार कुल 43 प्रत्याहार हो जाते हैं।
इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैंः---(१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (२) आदि अक्षरों के अनुसार। इनमें अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी के अनुसार है।
सबसे पहले हम अन्तिम अक्षर के अनुसार प्रत्याहार सूत्रों को देखें ---
(क) अइउण्---इससे एक प्रत्याहार बनता है। (१) "अण्"--उरण् रपरः (१•१•५०)
(ख.) ऋलृक्---इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं।
(२) "अक्"--अकः सवर्णे दीर्घः (६.१.९७)
(३) "इक्"--इको गुणवृद्धी (१.१.३)
(४) "उक्"--उगितश्च (४.१.६)
(२) "अक्"--अकः सवर्णे दीर्घः (६.१.९७)
(३) "इक्"--इको गुणवृद्धी (१.१.३)
(४) "उक्"--उगितश्च (४.१.६)
(ग) एओङ्---इससे एक प्रत्याहार बनता है।
(५) "एङ्"--एङि पररूपम् (६.१.९१)
(५) "एङ्"--एङि पररूपम् (६.१.९१)
(घ) ऐऔच्---इससे चार प्रत्याहार बनते है।
(६) "अच्" अचोSन्त्यादि टि (१.१.६३)
(७) "इच्"--इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च (६.३.६६) (८) "एच्"--एचोSयवायावः (६.१.७५)
(९) "ऐच्"---वृद्धिरादैच् (१.१.१)
(६) "अच्" अचोSन्त्यादि टि (१.१.६३)
(७) "इच्"--इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च (६.३.६६) (८) "एच्"--एचोSयवायावः (६.१.७५)
(९) "ऐच्"---वृद्धिरादैच् (१.१.१)
(ङ) हयवरट्---इससे एक प्रत्याहार बनता है।
(१०) "अट्"--शश्छोSटि (८.४.६२),
(१०) "अट्"--शश्छोSटि (८.४.६२),
(च) लण्--इससे तीन प्रत्याहार बनते है।
(११) "अण्"--अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः (१.१.६८)
(१२) "इण्"---इण्कोः (८.३.५७)
(१३) "यण्"--इको यणचि (६.१.७४)
(११) "अण्"--अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः (१.१.६८)
(१२) "इण्"---इण्कोः (८.३.५७)
(१३) "यण्"--इको यणचि (६.१.७४)
(छ) ञमङणनम्--इससे चार प्रत्याहार बनते है।
(१४) "अम्"--पुमः खय्यम्परे (८.३.६)
(१५) "यम्"---हलो यमां यमि लोपः (८.४.६३) (१६) "ङम्"--ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् (८.३.३२)
(१७) "ञम्"--ञमन्ताड्डः (उणादि सूत्र--१.११४)
(१४) "अम्"--पुमः खय्यम्परे (८.३.६)
(१५) "यम्"---हलो यमां यमि लोपः (८.४.६३) (१६) "ङम्"--ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् (८.३.३२)
(१७) "ञम्"--ञमन्ताड्डः (उणादि सूत्र--१.११४)
(ज) झभञ्---इससे एक प्रत्याहार बनता है।
(१८) "यञ्"---अतो दीर्घो यञि (७.३.१०१)
(१८) "यञ्"---अतो दीर्घो यञि (७.३.१०१)
(झ) घढधष्--इससे दो प्रत्याहार बनते है।
(१९) "झष्"
(२०) "भष्"---एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७)
(१९) "झष्"
(२०) "भष्"---एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७)
(ञ) जबगडदश्---इससे छः प्रत्याहार बनते है।
(२१) "अश्"--भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि (८.३.१७)
(२२) "हश्"--हशि च (६.१.११०)
(२३) "वश्"--नेड् वशि कृति (७.२.८)
(२४) "झश्"
(२५) "जश्"--झलां जश् झशि (८.४.५२)
(२६) "बश्"--एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७)
(२१) "अश्"--भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि (८.३.१७)
(२२) "हश्"--हशि च (६.१.११०)
(२३) "वश्"--नेड् वशि कृति (७.२.८)
(२४) "झश्"
(२५) "जश्"--झलां जश् झशि (८.४.५२)
(२६) "बश्"--एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७)
(ट) खफछठथचटतव्-
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------By
The probable 'common substratum' between tholkAppiam & Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, may be the Shiva Sutras, as my research had suggested.
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1." I think much of the works of Tamil scholars is sadly influenced by this Aryan-Dravidian myth"
'Aryan-Dravidian myth's entry into Tamil writings gained momentum only after 1944 with the birth of DK. Most of the scholarly works prior to 1944, as well as nationalist Tamil writers after 1944 were not influenced by the myth.
2. "The oldest Tamil literary work Tholkapiam starts with a homily to scholars in the Vedas. Genetic evidence gives irrefutable proof that there is a common substratum that connects all Indians."
The probable 'common substratum' between tholkAppiam & Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, may be the Shiva Sutras, as my research had suggested.
My research article’ Musical Phonetics in tholkAppiam’ was published in the year 2014 issue of the journal from the International Institute of Tamil Studies, Taramani, Chennai.
The findings may be related to the rhythmic phonetic dimension of ‘Mahashiva Sutras’ in Sanskrit; “The Shiva Sutras (IAST: Śivasūtrāṇi; Devanāgarī: शिवसूत्राणि) or Māheśvara Sūtrāṇi (Devanāgarī: माहेश्वर सूत्राणि) are fourteen verses that organize the phonemes of Sanskrit as referred to in the Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, the foundational text of Sanskrit grammar “( http://en.wikipedia.org/wiki/ Shiva_Sutras )
Also I had posted my findings in http://musictholkappiam. blogspot.in/.
But if the musical phonetics dimension of the ‘Misahashiva Sutras’ is a disjoint ( related note below) with the Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, then the above grammar related 'common substratum' may not be present.
Note: " There are many problems which may be raised concerning the formulation of SS (Shiva Sutras) and the use of the resultant abbreviatory terms ; problems relating to the order and the selection of sound - segments -----------------------. A detailed discussion of these and other problems relating to the SS may be found in Cardona (1969)- 'Studies in Indian Grammarians: The Method of description Reflected in Siva Sutras' (by George Cardona , Philadelphia, American Philosophical Society ) ”
From the published Ph.D thesis is ' Studies in pANini' by H.P. Dvivedi - Inter-India Publications, Delhi ( 1978).
S.A.Veerapandian
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