महाराष्ट्र नामकरण कैसे?
महाराष्ट्र नामकरण कैसे? भारत एक राष्ट्र है जो पृथु, इन्द्र, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, मान्धाता से लेकर भीष्म और युधिष्ठिर तक
विख्यात था जिनका सम्वाद महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय १०में है-
अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥
पृथोश्च राजन्वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिबेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥८॥
भारतवर्ष की श्रेष्ठता विष्णु पुराण २/३ में है जहां केवल भारत को कर्म भूमि कहा गया है-
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद्भारात्ं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥१॥
नवयोजन साहस्रो विस्तारोऽस्य महामुने। कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्ग च गच्छताम्॥२॥
महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः। विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः॥३॥
अतः सम्प्राप्यते स्वर्गो मुक्तिमस्मात्प्रयान्ति वै। तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा मुने॥४॥
इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गमते। न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते॥५॥
पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते। यज्ञैर्यज्ञमयो विष्णुरन्यद्वीपेषु चान्यथा॥२१॥
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने। यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः॥२२।।
गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्॥२३॥
इन वर्णनों के अनुसार भारत को ही राष्ट्र या महाराष्ट्र कहना चाहिये था, इस नाम के राज्य को अंगराष्ट्र या
मुख्य अंग कहना उचित
होता। मध्ययुग में यहां के राज्य को राष्ट्रकूट कहते थे। महाराष्ट्र नाम का प्रथम उल्लेख पद्मपुराण के भागवत माहात्म्य में है-अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
यहां ब्रिटिश युग की शिक्षा के विपरीत भक्ति और ज्ञान का जन्म दक्षिण से हुआ और उसका प्रसार क्रमशः उत्तर की तरफ हुआ। बाहर से आकर आर्यों ने वैदिक सभ्यता को दक्षिण पर नहीं थोपा। आकाश में सृष्टि का आरम्भ अप् से हुआ-अप एव ससर्जादौ (मनुस्मृति १/८)। अप् = पदार्थ का समरूप विस्तार। उसमें गति होने से विभिन्न द्रव्यों का मिश्रण होता है और नया पदार्थ उत्पन्न होता है। द्रव्य के भीतर की इस मिश्रण गति को मातरिश्वा कहते हैं क्योंकि यह माता के समान अपने गर्भ में सृष्टि करता है। गति रूप होने से इसका अर्थ वायु भी है-तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति (ईशावास्योपनिषद् ४)। इसी प्रकार दक्षिण भारत भी समुद्री यात्रा द्वारा विश्व के सम्पर्क में था अतः भारत सभी देशों के लिये आचरण का प्रमाण था। मलयालम-मलयेसिया। अनाम (आन्ध्र)-वियतनाम। कन्याकुमारी-केन्या। मुम्बई-मोम्बासा। अंग (पश्चिम बंग)-अंग या अग्नि द्वीप (आस्ट्रेलिया-वायुपुराण), चम्पा (भागलपुर)-चम्पा (कम्बोडिया) आदि। समुद्रीक्षेत्र से सभ्यता का विकास होने से इसे द्रविड़ कहा गया। यह व्यापार का केन्द्र था जहां पैसा भी द्रव्य की तरह बहता है, अतः द्रविड़ = धन, द्रव्य = पैसा।
ज्ञान का विस्तार कर्णाटक में हुआ। इसका मूल वेद है जो मनुष्य द्वारा विश्व का अनुभव है। अनुभव ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा है, जिसमें प्रथम माध्यम शब्द है जो मूल तत्त्व आकाश का गुण है। अतः इसकी क्रिया श्रुति का अर्थ वेद है। श्रुति का ग्रहण कर्ण से होता है अतः इसके विकास का स्थान कर्णाटक हुआ। उसके बाद वैदिक ज्ञान का जहां तक विस्तार हुआ वह क्षेत्र महाराष्ट्र होगा-महः = प्रभाव क्षेत्र या विस्तार।
विस्तार का एक माध्यम लिपि है जिसका आरम्भ बृहस्पति ने किया। उनको गणपति या ब्रह्मणस्पति भी कहा गया है। गण-पति= वर्णों के या मनुष्यों के गण का पति। ब्रह्मणस्पति = ब्रह्मा द्वारा अधिकृत। इस कारण उनके स्थान को ऋग्वेद (२/२३) में महान, ज्येष्ठ कहा गया है-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
देवाश्चित्ते असुर्य प्रचेतसो बृहस्पते यज्ञियं भागमानशुः।
उस्राइव सूर्यो ज्योतिषा महो विश्वेपाभिज्जनिता ब्रह्मणामसि॥२॥
सुनीतिभिर्नयसि त्रायसे जनं यस्तुभ्यं दाशान्न तमंहो अश्नवत्।
ब्रह्मद्विषस्तपनो मन्युमीरसि बृहस्पते महि ते महित्वनम्॥४॥
बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद्द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यद्दीदतच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्॥१५॥
ऋत का क्षेत्र उत्तर का समतल कृषिप्रधान भाग है, द्रविण समुद्र तट है। दोनों का समन्वय स्थान महाराष्ट्र हुआ जहां लिपि का एकीकरण हुआ। पहले शब्दों की रचना हुयी, तब लेखर्षभ इन्द्र ने उच्चारण स्थान के आधार पर उनको वर्णों में व्याकृत किया जिसको व्याकरण कहा गया।
बृहस्पते प्रथमं वाचा अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥ (ऋग्वेद १०/७१/१)
यही ब्रह्मा द्वारा कर्मों तथा संस्थाओं के अनुसार नामकरण है जो वेद पर आधारित है-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनु स्मृति १/२१)
७ संस्थाओं के कारण ७ प्रकार की लिपि हुई-यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/२१/४)
शनिवार, 28 दिसंबर 2013
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