Translate

शुक्रवार, 12 जून 2015

महेश्वर सूत्रों की व्याख्या :::

महेश्वर सूत्रों की व्याख्या ::: -- Hemraj Sharma
***********
महेश्वर सूत्र १४ है। इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार
से संयोजित किया गया है। फलतः, महर्षि पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों
को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप में ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों
का समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों
(अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १०
सूत्रों में व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यञ्जन
वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल्
भी प्रत्याहार हैं।
“प्रत्याहार” का अर्थ होता है – संक्षिप्त
कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के
प्रथम पाद के ७१ वे सूत्र ‘आदिरन्त्येन
सहेता’ (१-१-७१) द्वारा प्रत्याहार
बनाने की विधि का महर्षि पाणिनि ने
निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः)
आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण
(सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है
जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण
के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में
(collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: -
अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि
वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम
वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार
बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि
अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने
वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध
कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वे सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम
१४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ
मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष, स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की
इत् संज्ञा श्री पाणिनि ने की है। इत्
संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का
उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल
अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है,
किन्तु व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी
गणना नही की जाती है अर्थात् इनका
प्रयोग नही होता है।
इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र (१.११४) से "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" (८.४.४७) से बनता है। इस प्रकार कुल 43 प्रत्याहार हो जाते हैं।
इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैंः---(१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (२) आदि अक्षरों के अनुसार। इनमें अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी के अनुसार है।
सबसे पहले हम अन्तिम अक्षर के अनुसार प्रत्याहार सूत्रों को देखें ---
(क) अइउण्---इससे एक प्रत्याहार बनता है। (१) "अण्"--उरण् रपरः (१•१•५०)
(ख.) ऋलृक्---इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं।
(२) "अक्"--अकः सवर्णे दीर्घः (६.१.९७)
(३) "इक्"--इको गुणवृद्धी (१.१.३)
(४) "उक्"--उगितश्च (४.१.६)
(ग) एओङ्---इससे एक प्रत्याहार बनता है।
(५) "एङ्"--एङि पररूपम् (६.१.९१)
(घ) ऐऔच्---इससे चार प्रत्याहार बनते है।
(६) "अच्" अचोSन्त्यादि टि (१.१.६३)
(७) "इच्"--इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च (६.३.६६) (८) "एच्"--एचोSयवायावः (६.१.७५)
(९) "ऐच्"---वृद्धिरादैच् (१.१.१)
(ङ) हयवरट्---इससे एक प्रत्याहार बनता है।
(१०) "अट्"--शश्छोSटि (८.४.६२),
(च) लण्--इससे तीन प्रत्याहार बनते है।
(११) "अण्"--अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः (१.१.६८)
(१२) "इण्"---इण्कोः (८.३.५७)
(१३) "यण्"--इको यणचि (६.१.७४)
(छ) ञमङणनम्--इससे चार प्रत्याहार बनते है।
(१४) "अम्"--पुमः खय्यम्परे (८.३.६)
(१५) "यम्"---हलो यमां यमि लोपः (८.४.६३) (१६) "ङम्"--ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् (८.३.३२)
(१७) "ञम्"--ञमन्ताड्डः (उणादि सूत्र--१.११४)
(ज) झभञ्---इससे एक प्रत्याहार बनता है।
(१८) "यञ्"---अतो दीर्घो यञि (७.३.१०१)
(झ) घढधष्--इससे दो प्रत्याहार बनते है।
(१९) "झष्"
(२०) "भष्"---एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७)
(ञ) जबगडदश्---इससे छः प्रत्याहार बनते है।
(२१) "अश्"--भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि (८.३.१७)
(२२) "हश्"--हशि च (६.१.११०)
(२३) "वश्"--नेड् वशि कृति (७.२.८)
(२४) "झश्"
(२५) "जश्"--झलां जश् झशि (८.४.५२)
(२६) "बश्"--एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७)
(ट) खफछठथचटतव्-

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------By

veera pandian pannpandi@yahoo.co.in --

1." I think much of the works of Tamil scholars is sadly influenced by this Aryan-Dravidian myth" 

'Aryan-Dravidian myth's entry into Tamil writings gained momentum only after 1944 with the birth of DK. Most of the scholarly works prior to 1944, as well as  nationalist Tamil writers after 1944 were not influenced by the myth.

2. "The oldest Tamil literary work Tholkapiam starts with a homily to scholars in the Vedas. Genetic evidence gives irrefutable proof that there is a common substratum that connects all Indians."

The probable 'common substratum'  between tholkAppiam & Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, may be the Shiva Sutras, as my research had suggested.
 
My research article’ Musical Phonetics in tholkAppiam’  was published in the year 2014 issue of the journal from the International Institute of Tamil Studies, Taramani, Chennai.
 
The findings may be related to the rhythmic phonetic dimension of ‘Mahashiva Sutras’ in Sanskrit; “The Shiva Sutras (IAST: Śivasūtrāṇi; Devanāgarī: शिवसूत्राणि) or Māheśvara Sūtrāṇi (Devanāgarī: माहेश्वर सूत्राणि) are fourteen verses that organize the phonemes of Sanskrit as referred to in the Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, the foundational text of Sanskrit grammar “( http://en.wikipedia.org/wiki/Shiva_Sutras )
 
Also I had posted my findings in http://musictholkappiam.blogspot.in/.
 
But  if the musical phonetics dimension of the ‘Misahashiva Sutras’ is a disjoint ( related  note below) with the Aṣṭādhyāyī of Pāṇini, then the above grammar related 'common substratum' may not be present.
 
Note:  " There are many problems which may be raised concerning the formulation of SS (Shiva Sutras) and the use of the resultant abbreviatory terms ; problems relating to the order and the selection of sound - segments  -----------------------. A detailed discussion of these and other problems relating to the SS may be found in  Cardona (1969)- 'Studies in Indian Grammarians: The Method of description Reflected in Siva Sutras'  (by George Cardona  , Philadelphia, American Philosophical  Society ) ”
From the published Ph.D thesis is ' Studies in pANini' by H.P. Dvivedi - Inter-India Publications, Delhi ( 1978).
 
S.A.Veerapandian





















रविवार, 12 अप्रैल 2015

Paesi-Kahanayam 6th century BC Jain Phylosophy

Book from Modi
Manish Modi manishymodi@gmail.com
हिन्दी ग्रन्थ कार्यालय
१९१२ से धर्म, संस्कृति तथा साहित्य की सेवा में
9 Hirabaug CP Tank
Mumbai 400004
Telephones +91 22 2382 6739 +91 98208 96128

The Story of Paesi or Paesi-Kahanayam is a lively dialogue between the monk Kesi and prince Paesi based on the Rayapasenia Agama. Interestingly, the Paesi Kahanayam is the only large legend common to both Jain and Buddhist canonical literature. It is found in the Jain Rayapasenia Agama and in the Buddhist Dighanikaya. 

The monk Kesi and the prince Paesi (Sanskrit – Pradeshi) discuss the corporeality of the soul, whether it dies with the body or is distinct from the body. The prince is a materialist and argues in favour of the corporeality of the soul but the monk convinces him that the soul and body are distinct and while the body is corporeal, the soul is eternal. This dialogue is set in the 6th century BCE, the age of reflection on and discussion of the soul. While the present literary form dates some Centuries later, the discussion is still as relevant today, after two millennia.

This edition contains the Prakrit text in Devanagari and Roman transliteration, accompanied by an incisive English translation, exhaustive notes and a glossary.

The arguments in this discussion reflect many ancient Indian realia - birth rituals, diseases, etiquette, ethnic list of female servants, execution of thieves, regicide, the 72 professions,  similes, etc. which have been commented upon in the notes.

मंगलवार, 24 मार्च 2015

27 नक्षत्रों के वेदमंत्र

27 नक्षत्रों के वेदमंत्र
वैदिक ज्योतिष में महत्वपूर्ण माने जाने वाले 27 नक्षत्रों के वेद मंत्र निम्नलिखित हैं :
01-अश्विनी नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ अश्विनातेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वती वीर्य्यम् ।वाचेन्द्रो
बलेनेन्द्रायदधुरिन्द्रियम्।।
यजु0 20-80
ॐ अश्विभ्यां नम: ।
02-भरणी नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ यमायत्वामखायत्वा सूर्य्यस्यत्वातपसे देवस्यत्वा सवितामध्वानक्तु पृथ्वियाःस गुँ स्पृशस्पाहि ।अर्चिरसिशोचिरसि तपोसि।।
यजु037-11
ॐयमाय नमः।
03-कृतिका नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ अयमग्निः सहस्रिणो वाजस्य शतिनस्पतिः। मूर्द्धा कवीरयीणाम्। ।
यजु015-21
ॐ अग्नये नम: ।
04-रोहिणी नक्षत्र वेद मंत्र
ॐब्रह्मजज्ञानंप्रथमम्पुरस्ताद्विसीमत: सुरुचोव्वेनआव:। सबुध्न्या उपमाअस्यविष्ठाः सतश्चयोनिमतश्चव्विवः।।
यजु013-03
ॐ ब्रह्मणे नम: ।
05-मृगशिरा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ सोमोधेनु गुँ सोमोअर्वन्तमाशु गुँ सोमोवीरङ्कर्मण्यन्ददाति।
सादन्न्यम्विदत्थ्य गुँ सभेयम्पितृश्रवणंयोददाशदस्मै।।
यजु0 34-21
ॐ चन्द्रमसे नम: ।
06-आर्द्रा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ नमस्तेरुद्रमन्यवSउतोत इषवेनम:बाहुभ्यामुततेनम: ।।
यजु016-01
ॐ रुद्राय नम: ।
07-पुनर्वसु नक्षत्र वेद मंत्र
ॐअदितिर्द्योरदितिरन्तरिक्षमदितिर्मातासपितासपुत्र:विश्वेदेवा अदिति:पञ्चजनाअदितिर्जातमदितिर्ज्जनित्वम् ।।
यजु0 25-23
ॐ अदित्यैनम: ।
08-पुष्य नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ बृहस्पतेअतियदर्योअर्हा द्युमद्विभातिक्रतुमज्जनेषु ।
यद्दीदयच्छवसॠतप्रजात तदस्मासुद्रविणंधेहि चित्रम्।।
यजु0 26-03
ॐ बृहस्पतये नम: ।
09-अश्लेषा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ नमोSस्तुसर्पेभ्यो येकेचपृथिवीमनु।येअन्तरिक्षेयेदेवितेभ्य: सर्पेभ्यो नम: ।।
ॐ सर्पेभ्यो नम:।
10-मघा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ पितृभ्य: स्वधायिभ्यः स्वाधानम: पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम: ।
प्रपितामहेभ्य स्वधायिभ्यः स्वधानम:अक्षन्पितरोSमीमदन्त
पितरोतितृपन्तपितरःपितर:शुन्धध्वम्।।
यजु019-36
ॐ पितृभ्यो नम: ।
11-पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ भगप्रणेतर्भगसत्यराधो भगे मान्धियमुदवाददन्न: ।
भगप्रनोजनयगोभिरश्वैर्भगप्रनृभिर्नृवन्त: स्याम।।
यजु0 34-36
ॐ भगाय नम: ।
12-उत्तराफालगुनी नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ दैव्या वद्ध्वर्ज्जूआगत गुँ रथेन सूर्य्यत्वचा ।
मध्वायज्ञ गुँ समञ्जाथे।। तंप्रक्त्नथा यंव्वेनश्चित्रं देवानाम्।।
यजु0 33-33
ॐ अर्यम्णे नम: ।
13-हस्त नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ विभ्राड्बृहत्पिवतु सोम्यं मध्वायुर्द्दधद्यज्ञपतावविर्हुतम्।
वातजूतोयोअभिरक्षतित्मना प्रजाःपुपोषपुरुधाव्विराजति ।
यजु0 33-30
ॐ सूर्याय नम: ।
14-चित्रा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ त्वष्टातुरीपोअद्धुत इन्द्राग्नी पुष्टिवर्द्धना ।
द्विपदाच्छ्न्दइन्द्रियमुक्षागौर्न्नव्वयोदधु: ।
यजु0 21-20
त्वष्ट्रेनम:।
15-स्वाती नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ वायोरग्ग्रेगायज्ञप्प्रीःसाकङ्गन्मनसायज्ञम्। शिवोनियुद्भिः शिवाभिः।।
यजु0 27-31
ॐ वायवे नम: ।
16-विशाखा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ इन्द्रान्गी आगत गुँ सुतं गीर्भिर्न्नभो वरेण्यम् ।
अस्यपातन्घियेषिता ।।
यजु0 7-31
ॐ इन्द्रान्गीभ्यां नम: ।
17-अनुराधा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ नमो मित्रस्यवरुणस्य चक्षसे महोदेवायतदृत
गुँ सपर्यत । दूरेदृशेदेव जाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्यायश
गुँ सत ।
यजु0 4-35
ॐ मित्राय नम: ।
18-ज्येष्ठा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र गुँ हवे हवे सुहव गुँ शूरमिन्द्रम् । व्हयामि शक्रंपुरुहूतमिन्द्र गुँ स्वस्तिनोमघवा धात्विन्द्र: । ।
यजु0 20- 50
ॐ इन्द्राय नम: ।
19-मूल नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ मातेवपुत्रम्पृथिवी पुरीष्यमग्नि गुँ स्वयोनावभारुखा। तांविश्वैदेवैर्ॠतुभि: संविदान: प्रजापतिर्विश्वकर्मा विमुञ्चतु ।।
यजु0 12-61
ॐ निर्ॠतये नम: ।
20-पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ अपाघमपकिल्विषम पकृत्यामपोरप:। अपामार्गत्वमस्मद
पदु: स्वपन्य गुँ सुव।।
यजु0 35-11
ॐ अद्भ्यो नम: ।
21-उत्तराषाढ़ा नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ विश्वे अद्य मरुतो विश्वSऊती विश्वेभवन्त्वग्नय: समिद्धा:।
विश्वेनोदेवा अवसागमन्तु विश्वमस्तु द्रविणं वाजोअस्मे ।।
यजु0 18-31
ॐविश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।
22-श्रवण नक्षत्र वेद मंत्र
ॐ विष्णोरराटमसिव्विष्णोः श्नप्त्रेस्त्थोव्विष्णोःस्यूरसिव्विष्णोर्ध्रुवोसि । व्वैष्णवमसिव्विष्णवेत्त्वा ।
यजु0 5-21
ॐ विष्णवे नम: ।
23-धनिष्ठा नक्षत्र वेदमंत्र
ॐ वसो:पवित्रमसि शतधारंवसो: पवित्रमसि सहस्रधारम् ।
देवस्त्वा सविता पुनातुव्वसो: पवित्रेणशतधारेणसुप्वा कामधुक्ष: ।
यजु0 1-3
ॐ वसुभ्यो नम: ।
24-शतभिषा नक्षत्र वेदमंत्र
ॐवरुणस्योत्तम्भनमसिव्वरुणस्यस्कम्भसर्ज्जनीस्थोव्वरुस्यॠतसदन्यसि व्वरुणस्यॠतमदनमसिव्वरुणस्यॠतसदनमासीद।
यजु0 4-36
ॐ वरुणाय नम: ।
25-पूर्वभाद्रपद नक्षत्र वेदमंत्र
ॐ उतनोहिर्बुध्न्यः श्रृणोत्वज एकपात्पृथिवी समुद्र: विश्वेदेवा
ॠता वृधो हुवानास्तुतामंत्राः कविशस्त्ता अवन्तु ।।
यजु034-53
ॐ अजैकपदे नम:।
26-उत्तरभाद्रपद नक्षत्र वेदमंत्र
ॐ शिवोनामासिस्वधितिस्ते पिता नमस्तेSस्तुमामाहि गुँ सीः
निवर्त्तयाम्यायुषेSन्नाद्याय प्रजननायरायस्पोषाय  सुप्रजास्त्वायसुवीर्याय।
यजु0 3-63
ॐ अहिर्बुध्न्याय नम: ।
27-रेवती नक्षत्र वेदमंत्र
ॐ पूषन्तवव्रतेवयन्नरिष्येम कदाचन । स्तोतारस्त्तइहस्मसि।।
यजु0 34-41
ॐ पूष्णे नम: ।

बुधवार, 18 मार्च 2015

संस्कृत पाठ, नदी,सर्व (तीन लिंगोंमें)

संस्कृत पाठ 
पाठ 1 -- 26-05-15
दश वाक्यानि
अ) अद्य प्रयत्नपूर्वकं संस्कृतं लिखामि
आ) किन्तु बहूनि शब्दानि न लिखामि।
इ) श्वः अपि किंचित् अधिकं एव लेखिष्यामि।
ई) श्रुणोतु भवान्
उ) एदानीं मम दूरभाषी बहुधा न चलति।

ऊ) तर्हि कथं सम्पर्खं करिष्यामि ।
ए) किं भवान् खादितवान् ।
ऐ) --- सप्र वाक्यानि सहजं एव लिखितवती।
ओ) किन्तु अधुना एकादश घटिका जातः
औ) अतः अधुना भवान्  विश्रामं करोतु ।

------------------------------------------------------------

प्रथमा विभक्तिः

नदी नद्यौ नद्यः

द्वितीया विभक्तिः

नदीम् नद्यौ नदीः

तृतीया विभक्तिः

नद्या नदीभ्याम् नदीभिः

चतुर्थी विभक्तिः

नद्यै नदीभ्याम् नदीभ्यः

पञ्चमी विभक्तिः

नद्याः नदीभ्याम् नदीभ्यः

षष्ठी विभक्तिः

नद्याः नद्योः नदीनाम्

सप्तमी विभक्तिः

नद्याम् नद्योः नदीषु

संबोधन

हे नदि हे नद्यौ हे नद्यः

-----------------------------------








स्त्रीलिंग


प्रथमा 
सर्वा
sarvaa
सर्वे
sarve
सर्वाः
sarvaaH

द्वितीया
सर्वाम्
sarvaam
सर्वे
sarve
सर्वाः
sarvaaH

तृतीया
सर्वया
sarvayaa
सर्वाभ्याम्
sarvaabhyaam
सर्वाभिः
sarvaabhiH

चर्तुथी 
सर्वसै
sarvasai
सर्वाभ्याम्
sarvaabhyaam
सर्वाभ्यः
sarvaabhyaH

पन्चमी 
सर्वस्याः
sarvasyaaH
सर्वाभ्याम्
sarvaabhyaam
सर्वाभ्यः
sarvaabhyaH

षष्ठी
सर्वस्याः
sarvasyaaH
सर्वयोः
sarvayoH
सर्वासाम्
sarvaasaam

सप्तमी
सर्वस्याम्
sarvasyaam
सर्वयोः
sarvayoH
सर्वासु
sarvaasu

सम्बोधन 
सर्वे
sarve
सर्वे
sarve
सर्वाः
sarvaaH


पुल्लिंग
प्रथमासर्वःसर्वौसर्वे
संबोधनप्रथमाहे सर्वहे सर्वौहे सर्वे
द्वितीयासर्वम्सर्वौसर्वान्
तृतीयासर्वेणसर्वाभ्याम्सर्वैः
चतुर्थीसर्वस्मैसर्वाभ्याम्सर्वेभ्यः
पञ्चमीसर्वस्मात्सर्वाभ्याम्सर्वेभ्यः
षष्ठीसर्वस्यसर्वयोःसर्वेषाम्
सप्तमीसर्वस्मिन्सर्वयोःसर्वेषु


(दकारान्त सर्वनाम नपुंलिङ्ग - dakaaraanta sarvanaama napu.nliN^ga)

विभक्ति
Singular
एकवचन - ekavachana
Dual
द्विवचन - dvivachana
Plural
बहुवचन - bahuvachana

प्रथमा
सर्वम्
sarvam
सर्वे
sarve
सर्वाणि
sarvaaNi

द्वितीया
सर्वम्
sarvam
सर्वे
sarve
सर्वाणि
sarvaaNi

तृतीया 
सर्वेण
sarveNa
सर्वाभ्याम्
sarvaabhyaam
सर्वै
sarvai

चर्तुथी 
सर्वेस्मै
sarvasmai
सर्वाभ्याम्
sarvaabhyaam
सर्वेभ्यः
sarvebhyaH

पन्चमी 
सर्वस्मात्
sarvasmaat
सर्वाभ्याम्
sarvaabhyaam
सर्वेभ्यः
sarvebhyaH

षष्ठी 
सर्वस्य
sarvasya
सर्वयोः
sarvayoH
सर्वेषाम्
sarveShaam

सप्तमी
सर्वस्मिन्
sarvasmin
सर्वयोः
sarvayoH
सर्वेषु
sarveShu

सम्बोधन 
सर्व
sarva
सर्वौ
sarvau
सर्वाणि
sarvaaNi





बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

राम जन्म ग्रहस्थिती

राम जन्म ग्रहस्थिती

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

गीता किसके लिये

 24 Feb 2007
गीता किसके लिये?

     गीता इतना पुरातन ग्रंथ है कि आम आदमी को गलतफहमी हो सकती है कि यह केवल बुढापे में परमात्मा का स्मरण करवाने के लिये उपयुक्त है। लेकिन मैंकहती हूँ कि यह बडी व्यावहारिक और उपयोगी विषयवस्तु है जो हर उमर में और हर मौके पर सही- गलत की पहचान करवानी है।
     यदि आपके सामने भगवद्गीता पर एक अच्छी पुस्तक रखी गई और आप सोच रहे है, इसे पढूँ या ना पढूँ? या चॅनेल सर्फिंग में यही प्रोग्राम आपके सामने आया और आपके मन में प्रश्न आया- इसे देखूँ या न देखूँ? क्या यह मेरे लिये relevant हैं? एक लीडर के लिये, जो लीडरी करना चाहता है और अच्छे- बुरे का विचार किये बगैर अपने लिये धन और सुखोपभोग भी जुटाना चाहता है। क्या गीता में उसके लिये भी tips हैं- जरुर हैं। क्यों कि गीता में लीडर के लिये tips हैं। लेकिन उनका पालन अल्प कालीन रहेगा- शाश्वत नही, वह दिखावा होगा यथार्थनही। क्यों कि  कोई भी लीडर अपने followers के सामने अपने अनैतिक चरित्र का आदर्श नही रह सकता।वैसे followers उसके नही रहेंगे। तो थोडे ही समय में ऐसे लीडर से गीता छूट जायगी।
     लीडर का पहला गुण है- कि औरों से wavelength जुटी रहे- communication skills हों, motivate कर सकता हो।
     गीता का सारांश देखना हो तो इस वाक्य में देखा जा सकता है।तस्मात् योगी भवार्जुन। यह एक आदेश है।लेकिन केवल आदेश देकर कृष्ण चुप नही बैठते। बारीकियाँ समझाकर बताते हैं कि योगी के लक्षण क्या हैं औरयोगी की सिध्दी के लिये क्या क्या करना है कैसे करना है।
     छठवां अध्याय जो कि आत्मसंयम योग कहा गया है, यह एक लम्बी यात्रा को आनन्ददायी बनाने वाली कविता है।
     जो कर्मक फल पर आश्रित नही है, वह योगी है और वही संन्यासी है।
     गीता में बार बार कहा है- संन्यासी क्या है? वह नही जो सबकुछ छोड छाड कर कहीं दूर गिरा कंदराओं मे भटकने के लिये निकल
पडा। बल्कि वह जो दुगुने उत्साह से काम में लग गया।लेकिन उत्साह भी कैसा? जिसमें काम ही सर्वोपरि है- फल की आकांक्षा नही।
     एक बार अर्जुन को ये तो कह दिया कि कर्मपर ही तेरा अधिकार है, फल पर नही- यह भी डाँट डपर कर कह दिया कि खबरदार फलेच्छा न रखना।लेकिन अब इसका यश गा रहे हैं। जो कर्मफल से परे हो गया, वह योगी हो गया- मुदित हो गया, आनंदित हो गया।
     मैंने अक्सर देखा है और अपने घर परिवार में बच्चो को भी समझाया कि परीक्षा में नंबर लाना यही सबका ध्येय है। विषय चाहे समझ में आये या न आये। मैं बच्चों से कहती- तुम्हें परीक्षा में नंबर आयें या नं आयें, मैं पहले पूछूँगी विषय का ज्ञान आया या नही? मेरी परीक्षा में पास होकर दिखाओ तो मानूँ।कोई विषय उठाओ और देखो कि यह कितनी गहराई तक तुम्हें आया।
     एक प्रसंग है तैराकी का। कितने लोग तैरने में expert होते हैं। पानी में डुबकी लगाते हैं। पानी के अंदर जाते ही थोडासा हल्कापन महसूस करते हैं। जितना तय किया था, उतना तैरकर बाहर आ जाते हैं।या जिन देशों में जिन घरों में टब में पानी भर उसी में नहाने का रिवाज है, वे वही करते हैं। लेकिन आर्किमिडिज एक वैज्ञानिक था- नहाने के लिये टब में घुसा तो इधर थोडा पानी छलक कर गिरा, उधर देह में कुछ हलकापन महसूस हुआ और उसका दिमाग जो सजग था- उसने खट् से पकड लिया- यह जो पानी बाहर गिरा, इसका और मेरे शरीर के वजन घटने का कोई संबंध है। वह टब से निकलकर नंगा ही सडकों पर दौडा गया- युरेका , युरेका- अर्थात् मैंने पा लिया, मैंने पा लिया- क्या पा लिया? रहस्य पा लिया। कैसा रहस्य? तो यह जो दिमाग की सजगता है, हर क्षण के कार्यकलाप को पकडना, समझना, छोडना और अगले क्षण     के लिये तत्पर हो जाना यह कहाँ से आती है?  यह तब आती है यदि हम कर्म में पूरी तरह जुटे हैं, फिर भी कर्मफल पर आश्रित नही हों।
     यहाँ बडी विचारणीय बात है,क्या हमें goal focussed नही होना है? यदि कर्मफल के प्रति मोह नही रखना है तो उस लक्ष्य पर /goal पर हमारी आँख नही रहेगी।
      तो गीता की सीख यह नही है। goal पर focus रखना है- उसी के लिये कर्म करने हैं और कुशलता के साथ करने हैं।तो छोडना किसे है-? छोडना है उस सुख- दुख को जो जय- पराजय से स्तुती- निंदा से, यश- अपयश से आते हैं।
      मैं अपने आनंद के लिये उस जय- या यश पर आश्रित नही हूँ ,बल्कि मेरा आनंद इस बात से आता है कि मैं काम कर रही हूँ और अच्छी तरह से कर रही हूँ। लक्ष्य पर निगाह रख कर रही हूँ। कुशलता पूर्वक, सतर्कता पूर्वक, तन्मयता पूर्वक। उस कार्य को करते करते मेरी इन्द्रियाँ एक लय में निबध्द हो जायें।
      एक प्रसंग मुझे याद आता है कि मैं अपने बेटे को कार चलाना सिखा रही थी। उसे अच्छी खाली प्रॅक्टिस हो गई। स्पीड बढाना, घटाना, ब्रेक लगाना, ओव्हरटेक, रिवर्स।RTO में जाकर टेस्ट देनी थी तो मैंने समझाया - देखो, टेस्ट जाने से पहले मेरी टेस्ट में पास होना पडेगा। क्या है वह टेस्ट? कि जब गाडी चलाओ, तब दिमाग से नही बल्कि शरीर के अवयों से गाडी चलनी चाहिये। जब आँख के कोने से दिख जाये कि कोई रास्ते में आनेवाला है तो यह संवेदना या ज्ञान पहले दिमाग में पहुँचता है या पहले पैर ब्रेक दबाने के लिये तैयार हो जाते हैं? यदि पैर पहले तैयार हैं तो टेस्ट मे पास। यदि कान्शख दिमाग के आदेश पर पैरों को ब्रेक लगाना पडे तो इसका अर्थ है कि अभी और प्रॅक्टिस आवश्यक है।

अमानिक्नमदाम्भिमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मनविनिग्रहः। ७
इन्द्रियार्थेषु.........
                                      दर्शनम।८
मयिचान्न्य योगेन
                                       जनसंसदि
अध्यात्म               तत्वज्ञानार्थ......
                                        यदतोन्यथा।१३

मनकी अहिंसा भावना इन्द्रियों के माध्यम से प्रगट होती है। अनः जिसके मनमे अहिंसा है उसका बोलना मधुर, हस्तस्पर्श सुखकर, दृष्टि कृपावंत हो जाती है।
      भगवद्गीता में संकल्पनाओं की प्रस्तुति है, उनके एक सुंदरसंकल्पना है विभूतियोग। केषु केषुच भावेषु चिन्त्यो सि? अर्जुन पूछता है, हे कृष्ण, मैं तुन्हें किस किस रूप में देखूँ? उस अपने सुंदर आनंददायी स्वरूप के विषय में तुम स्वयं बताओ।और भगवान भी जो इतनी देर से मैं निर्गुण हूँ, निराकार हूँ, परब्रह्म हूँ इत्यादि कहे जा रहे थे, वो सारे सिध्दान्त अलग रखकर उन्होंने अपनी पहचान के संकेत बता दिये।
     यह कहना कि सामान्य व्यक्ति भगवान नही बन सकता- इस सिध्दान्त को ही भगवान ने धता बता दिया।हर व्यक्ति भगवान के समकक्ष बन सकता है, अपने अस्तित्व के माध्यम से इतर जनों को भगवान के होने की प्रचीती करा सकता है। सामान्य मनुष्य के मन को दिव्यता का शिखर दिखाकर उसे रास्ता बता दिया- एक चॅलेंज के साथ या एक शाबासी के साथ- कि देख लो, वह जो शिखर है, वह गुण मेरा परिचायक है उसे प्राप्त करो और मेरे समकक्ष हो जाओ।
     हर मनुष्य के मन में एक ललक होती है, कुछ कर गुजरने की ऐसे कर्तृत्ववान विभूतियोग है- यह हमें गुणों की परख भी दिखाता है और उन गुणों का निर्वाह करने के लिये भी प्रेरणा देता है।